Saturday, February 20, 2010

प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर

प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर



प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर
— डा.शिवकुमार मिश्र, वल्लभविद्यानगर [गुजरात]


महेंद्रभटनागर की कविताएँ एक ऐसे कवि के रचना-कर्म की फलश्रुति हैं; अपने अब-तक के आयुष्य के छह दशकों तक अपने समय से सीधे आँखें मिलाते हुए जिसने उसके एक-एक तेवर को पहचाना और शब्दों में बाँधा है। इन कविताओं में समय के बहुरूपी तेवर ही नहीं, पूरे समय के पट पर, कभी साफ़-सुथरी; परन्तु ज़्यादातर पेचीदा और गड्डमड्ड लिखी हुई उस इबारत का भी खुलासा है जिसे बड़ी शिद्दत से कवि ने पढ़ा-समझा और उसके पूरे आशयों के साथ हम सबके लिए मुहैया किया है।
छह दशकों की सृजन-यात्रा कम नहीं होती। महेन्द्र भटनागर के कवि-मन की सिफ़त इस बात में है कि लाभ-लोभ, पद-प्रतिष्ठा के सारे प्रलोभनों से अलग, अपनी विश्व-दृष्टि और अपने विचार के प्रति पूरी निष्ठा के साथ, अपनी चादर को बेदाग रखते हुए वे नई सदी की दहलीज़ तक अपने स्वप्न और अपने संकल्पों के साथ आ सके हैं।
एक लम्बे रचना-काल का साक्ष्य देती इन कविताओं में सामाजिक यथार्थ की बहु-आयामी और मनोभूमि और मनोभावनाओं की बहुरंगी प्रस्तुति है। इनमें युवा-मन की ऊर्जा, उमंग, उल्लास और ताज़गी है तो उसका अवसाद, असमंजस और बेचैनी भी। ललकार, चेतावनी, उद्बोधन और आह्नान है तो वयस्क मन के पके अनुभव तथा उन अनुभवों की आँच से तपी-निखरी सोच भी है। कहीं स्वरों में उद्घोष है तो कहीं वे संयमित हैं। समय की विरूपता, क्रूरता और विद्रूपता का कथन है तो इस सबके खिलाफ़ उठे प्रतिरोध के सशक्त स्वर भी। समय के दबाव हैं तो उनका तिरस्कार करते हुए मुखर होने वाली आस्था भी। परन्तु इन कविताओं में मूलवर्ती रूप में सारे दुख-दाह और ताप-त्रास के बीच जीवन के प्रति असीम राग की ही अभिव्यक्ति है। आदमी के भविष्य के प्रति अप्रतिहत आस्था की कविताएँ हैं ये, और इस आस्था का स्रोत है कवि का इतिहास-बोध और उससे उपजा उसका ‘विज़न’। कवि के उद्बोधनों में, आदमी के जीवन को नरक बनाने वाली शक्तियों के प्रति उसकी ललकार में एवं आदमी के उज्ज्वल भविष्य के प्रति उसकी निष्कम्प आस्था में उसके इस ‘विज़न’ को देखा जा सकता है।
कविता के नये-नये आन्दोलन उनकी निगाहों के सामने गुज़रते रहे हैं; परन्तु प्रगतिशील आन्दोलन के उदय के साथ उनकी रचना-धर्मिता ने जिस जीवन-धर्मी और जन-धर्मी लय से अपना नाता जोड़ा, उम्र के आठवें दशक में पहुँचे हुए कवि की कविता में वह जीवन-धर्मी और जन-धर्मी लय अपनी पूरी ऊर्जा में जीवित है। फ़र्क इतना ही है कि उम्र के आख़िरी पड़ाव में पहुँचकर कवि ने बाहर की दुनिया के साथ-साथ अपने भीतर की दुनिया में भी झाँका है — किये-धरे, जिये-भोगे का लेखा-जोखा लिया है, जो स्वाभाविक है। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचे हुए आदमी में जिस तरह कभी-कभार एक दार्शनिक भी बोला करता है, महेंद्रभटनागर के कवि-मन में इस दार्शनिक की पैठ और उसके कहे हुए की अनुगूँज भी कुछ कविताओं में है। महेंद्रभटनागर की कविताएँ वस्तुतः एक परिपक्व रचना-धर्मिता की उपज हैं। वे एक ऐसे रचनाकार से हमें रू-ब-रू करती हैं, जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों से जो गुज़र चुका है, बाहर की दुनिया के साथ अपने भीतर की दुनिया को काफ़ी-कुछ थाह-परख चुका है — और अब प्रकृतिस्थ होकर — अनुभवों की जो राशि इस क्रम में उसे मिली है — तथा जो कुछ अपने जिये-भोगे के अलावा अपने देखे-सुने और पढ़े से उसने अर्जित किया है, उसे सबको बाँट देना चाहता है कि लोग उसके बरक्स अपने बाहर-भीतर को जाँचें-परखें। ज़िन्दगी के लम्बे सफ़र में जो कुछ उसे सुखद और प्रीतिकर लगा है, उसे ज़रूर पूरी शिद्दत से समेटते और बचाते हुए, अपनी स्मृतियों में सँजोए वह बार-बार जीना और पाना चाहता है। अप्रीतिकर तथा क्लेशदायक के प्रति भी उसमें आवेग या उद्वेग नहीं है, कारण वह सब भी उसके अनुभवों का हिस्सा है। परन्तु उसे बाहर की दुनिया में वितरित कर उसके भार से ज़रूर वह मुक्त होना चाहता है। उसकी जन-पक्षधरता का, उसकी जन-धर्मी चेतना का दायित्व भी है कि वह समय के उन दंशों की पीड़ा को, समय की उन विरूपताओं और विद्रूपताओं को, आदमियत के तेज़ी से हो रहे क्षरण और उससे उपजी सम्भावित विपदाओं को सामने लाये ताकि उसकी तरह बाक़ी लोग भी उस समय को जानें-पहचानें, जो उनका समय है, और उनके बरक्स उसमें अपनी और अपने हस्तक्षेप की दिशाएँ तय करें। संकलन की कुछ कविताओं में उद्बोधन के ऐसे स्वर हैं, जो ज़रूरी भी थे।
महेंद्रभटनागर की कविता की, शुरूआती दौर से ही, यह विशेषता रही है कि कविताओं में भोगे और अर्जित किये हुए अनुभव-संवेदनों को ही उन्होंने तरज़ीह दी है। किताबी, आयातित या उधार लिया हुआ, उसमें लगभग कुछ भी नहीं है, न रहा है। इसी नाते उनकी अभिव्यक्ति विश्वसनीय भी है और सहज तथा प्रकृत भी। प्रगतिशील आन्दोलन के शुरूआती दौर में जो उफ़ान और आवेग, जो लाउडनेस (Loudness) कविता में थी, उनकी कविता में उसकी अनुगूँजें नहीं आयीं। न तो वे पहले लाउड (Loud) थे और न ही आज हैं। रचनाधर्मी प्रयोग भी उसमें नहीं हैं। वह सीधी और सहज कविता है, फिर भी सपाट और सतही नहीं। चूँकि वह अनुभव-प्रसूत है अतएव उसमें शिल्प के बजाय बात बोली है — सारगर्भित बात, जिसे किसी भंगिमा की दरकार नहीं, जो अपने कथ्य और उससे जुड़ी संवेदना के बल पर पढ़ने वाले के दिल-दिमाग़ में उतर जाती है। उसकी विशेषता उसकी प्रशांति तथा प्रांजलता है।
महेंद्रभटनागर की इन कविताओं की एक अन्य विशेषता यह भी है कि अपनी जन-धर्मिता, जीवन-धर्मिता तथा बदले और लगातार बदल रहे समय के प्रति जागरूकता बनाए रहते हुए भी वह चैहद्दियों में बँधी नहीं रही। उससे आगे-कुछ ऐसे विषयों की ओर भी वह गयी है जो कविता के सनातन विषय रहे हैं — मसलन प्रेम और प्रकृति, जीवन और मृत्यु आदि।
इस तरह देखा जाय तो महेंद्रभटनागर प्रगतिशील कवियों की उस पंक्ति के कवि हैं जिनकी रचना-धर्मिता ने प्रगतिशील कविता के फलक को व्यापक बनाया है। बावज़ूद इसके, इन विषयों पर पूर्ववत्र्ती कवियों की मानसिकता के तहत न लिखकर महेंद्रभटनागर के कवि ने उन पर उस मनोभूमि में लिखा है, जिस मनोभूमि में ये विषय केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन या नागार्जुन जैसे प्रगतिशील कवियों द्वारा उजागर हुए हैं। महेंद्रभटनागर की प्रकृति-कविताएँ केदार अग्रवाल की कविताओं का स्मरण कराती हैं तो ‘स्वकीया’ के आलम्बन वाली प्रेम-कविताओं में हमें नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार एक साथ दिखायी देते हैं। ये कविताएँ उपर्युक्त कवियों की अनुकृति नहीं, समानता है तो मनोभूमि की।
आज के समय में आदमियत के क्षरण पर, राजनीति की विद्रूपताओं पर, सामाजिक जीवन की विकृतियों और विडम्बनाओं पर भी कवि ने लिखा है। बावज़ूद इसके आदमी के उज्ज्वल भविष्य पर उसे भरोसा है। वह निराश और हताश इस नाते नहीं है कि उसके पास वह इतिहास-दृष्टि है, जो उसे बताती है कि आदमी ज़िन्दा है और ज़िन्दा रहेगा — हर आपदा-विपदा के बावज़ूद, क्योंकि उसके पास उसके श्रम की शक्ति है, और श्रमजीवी कभी नहीं मरा करता। महेन्द्र भटनागर के कवि-कर्म से कविता की प्रगतिशील धारा समृद्ध हुई है, ऐसा विश्वास के साथ कहा जा सकता है। कुल मिलाकर, महेंद्रभटनागर की कविता धरती और जीवन के प्रति अकुंठ राग की कविता है। वह मानव-जिजीविषा की कविता है, जो मरना नहीं जानती।

— डा. शिवकुमार मिश्र, वल्लभ-विद्यानगर (गुजरात)



कविताएँ

1 कला-साधना / 2
2 कविता-प्रार्थना / 3
3 प्रतीक्षक / 4
4 दो ध्रुव / 5
5 दृष्टि / 6
6 परिवर्तन / 6
7 सुखद / 7
8 अनुभव-सिद्ध / 8
9 अदम्य / 9
10 सार्थकता / 10
11 अमानुषि / 11
12 इतिहास का एक पृष्ठ / 12
13 अग्नि-परीक्षा / 14
14 विचित्र / 16
15 संक्रमण / 17
16 सहभाव / 18
17 अब नहीं / 18
18 वर्तमान / 19
19 परिणति / 20
20 नवोन्मेष / 20
21 अंधकार / 21
?2 आलोक / 22
23 दीप जलता है! / 23
24 आज की ज़िन्दगी / 24
25 मध्य-वर्ग - 1 / 25
26 मध्य-वर्ग - 2 / 25
27 भविष्यत् / 26
28 लेखनी से — / 27
29 निश्चय / 28
30 बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे! / 29
31 काटो धान / 31
32 मुख को छिपाती रही / 33
33 अजेय / 34
34 पहली बार / 35
35 ज़िन्दगी कैसे बदलती है! / 37
36 नयी नारी / 38
37 मशाल / 40
38 ग्रीष्म / 41
39 नारी / 42
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कला-साधना

हर हृदय में
स्नेह की दो बूँद ढल जाएँ
कला की साधना है इसलिए !

गीत गाओ
मोम में पाषाण बदलेगा,
तप्त मरुथल में
तरल रस ज्वार मचलेगा !
गीत गाओ
शांत झंझावात होगा,
रात का साया
सुनहरा प्रात होगा !

गीत गाओ
मृत्यु की सुनसान घाटी में
नया जीवन-विहंगम चहचहाएगा !
मूक रोदन भी चकित हो
ज्योत्स्ना-सा मुसकराएगा !

हर हृदय में
जगमगाए दीप
महके मधु-सुरिभ चंदन
कला की अर्चना है इसलिए !
गीत गाओ
स्वर्ग से सुंदर धरा होगी,
दूर मानव से जरा होगी,
देव होगा नर,
व नारी अप्सरा होगी !

गीत गाओ
त्रास्त जीवन में
सरस मधुमास आ जाए,
डाल पर, हर फूल पर
उल्लास छा जाए !
पुतलियों को
स्वप्न की सौगात आए !
गीत गाओ
विश्व-व्यापी तार पर झंकार कर !
प्रत्येक मानस डोल जाए
प्यार के अनमोल स्वर पर !

हर मनुज में
बोध हो सौन्दर्य का जाग्रत
कला की कामना है इसलिए
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कविता-प्रार्थना

आदमी को
आदमी से जोड़ने वाली,
क्रूर हिंसक भावनाओं की
उमड़ती आँधियों को
मोड़ने वाली,
उनके प्रखर
अंधे वेग को — आवेग को
बढ़
तोड़ने वाली
सबल कविता µ
ऋचा है, / इबादत है !

उसके स्वर
मुक्त गूँजें आसमानों में,
उसके अर्थ ध्वनित हों
सहज निश्छल
मधुर रागों भरे
अन्तर-उफ़ानों में !

आदमी को
आदमी से प्यार हो,
सारा विश्व ही
उसका निजी परिवार हो !

हमारी यह
बहुमूल्य वैचारिक विरासत है !
महत्
इस मानसिकता से
रची कविता —
ऋचा है, इबादत है !
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प्रतीक्षक

अभावों का मरुस्थल
लहलहा जाये,
नये भावों भरा जीवन
पुनः पाये,
प्रबल आवेगवाही
गीत गाने दो !

गहरे अँधेरे के शिखर
ढहते चले जाएँ,
उजाले की पताकाएँ
धरा के वक्ष पर
सर्वत्रा लहराएँ,
सजल संवेदना का दीप
हर उर में जलाने दो !
गीत गाने दो !

अनेकों संकटों से युक्त राहें
मुक्त होंगी,
हर तरफ़ से
वृत्त टूटेगा
कँटीले तार का
विद्युत भरे प्रतिरोधकों का,
प्राण-हर विस्तार का !

उत्कीर्ण ऊर्जस्वान
मानस-भूमि पर
विश्वास के अंकुर
जमाने दो !
गीत गाने दो !
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दो ध्रुव

स्पष्ट विभाजित है
जन-समुदाय —
समर्थ / असहाय।
हैं एक ओर —
भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविधा-साधन-सम्पन्न
प्रसन्न।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब!
बँगले हैं / चकले हैं,
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत,
हैरत है, हैरत!

दूसरी तरफ़ —
जन हैं
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त ... त्रास्त,
अनपढ़,
दलित असंगठित,
खेतों - गाँवों / बाजा़रों - नगरों में
श्रमरत,
शोषित / वंचित / शंकित!
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दृष्टि

जीवन के कठिन संघर्ष में
हारो हुओ!
हर क़दम
दुर्भाग्य के मारो हुओ!
असहाय बन
रोओ नहीं,
गहरा अँधेरा है,
चेतना खोओ नहीं!

पराजय को
विजय की सूचिका समझो,
अँधेरे को
सूरज के उदय की भूमिका समझो!

विश्वास का यह बाँध
फूटे नहीं!
नये युग का सपन यह
टूटे नहीं!
भावना की डोर यह
छूटे नहीं!
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परिवर्तन

मौसम कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!

सपना — जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!

समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा, छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!

साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम कितना बदल गया!
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सुखद

सहधर्मी / सहकर्मी
खोज निकाले हैं
दूर - दूर से
आस - पास से
और जुड़ गया है
अंग - अंग
सहज
किन्तु / रहस्यपूर्ण ढंग से
अटूट तारों से,
चारों छोरों से
पक्के डोरों से!

अब कहाँ अकेला हूँ ?
कितना विस्तृत हो गया अचानक
परिवार आज मेरा यह!
जाते - जाते
कैसे बरस पड़ा झर - झर
विशुद्ध प्यार घनेरा यह!

नहलाता आत्मा को
गहरे - गहरे!
लहराता मन का
रिक्त सरोवर
ओर - छोर
भरे - भरे!
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अनुभव-सिद्ध

तय है कि काली रात गुज़रेगी,
भयावह रात गुज़रेगी !
असफल रहेगा
हर घात का आघात,
पराजित रात गुज़रेगी !
यक़ीनन हम
मुक्त होंगे त्रासदायी स्याह घेरे से,
रू-ब-रू होंगे
स्वर्णिम सबेरे से,
अरुणिम सबेरे से !
तय है —
अँधेरे पर उजाले की विजय तय है !
पक्षी चहचहाएंगे,
मानव प्रभाती गान गाएंगे !
उतरेंगी गगन से सूर्य-किरणें
नृत्य की लय पर,
धवल मुसकान भर - भर !
तय है कि
संघातक कठिन दुःसह अँधेरी रात गुज़रेगी !
कुचक्रों से घिरा आकाश बिफरेगा,
आहत ज़िन्दगी इंसान की
सँवरेगी !
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अदम्य

दूर-दूर तक छाया सघन कुहरµ
कुहरे को भेद
डगर पर बढ़ते हैं हम !

चट्टानों ने जब-जब पथ अवरुद्ध किये —
चट्टानों को तोड़ नयी राहें गढ़ते हैं हम !

ठंडी तेज़ हवाओं के वर्तुल झोंके आते हैंµ
तीव्र चक्रवातों के सम्मुख सीना ताने
पग-पग अड़ते हैं हम !

सागर-तट पर टकराता भीषण ज्वारों का पर्वत —
उमड़ी लहरों पर चढ़ पूरी ताक़त से लड़ते हैं हम !

दरियाओं की बाढ़ें तोड़ किनारे बहती हैं —
जल भँवरों / आवेगों को थाम;
सुरक्षा-यान चलाते हैं हम !

काली अंधी रात क़यामत की
धरती पर घिरती है जब-जब —
आकाशों को जगमग करते
आशाओं के / विश्वासों के,
सूर्य उगाते हैं हम !
मणि-दीप जलाते हैं हम

ज्वालामुखियों ने जब-जब
उगली आग भयावह —
फैले लावे पर
घर अपना बेख़ौफ़ बनाते हैं हम !

भूकम्पों ने जब-जब
नगरों गाँवों को नष्ट किया —
पत्थर के ढेरों पर
बस्तियाँ नयी हर बार बसाते हैं हम !

परमाणु-बमों / उद्जन-शस्त्रों की
मारों से
आहत भू-भागों पर
देखो कैसे
जीवन का परचम फहराते हैं हम !
चारों ओर नयी अँकुराई हरियाली
लहराते हैं हम !

कैसे तोड़ोगे इनके सिर ?
कैसे फोड़ोगे इनके सिर ?
दुर्दम हैं,
इनमें अद्भुत ख़म है !
काल-पटल पर अंकित है —
‘जीवन-अपराजित है !’
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सार्थकता

आओ
दीवारों के घेरों / परकोटों से
बाहर निकलें !
अपने सुख-चिन्तन से ऊपर उठ कर
जग-क्रन्दन को स्वर-सरगम में बदलें !

मुरझाये रोते चेहरों को मुसकानें बाँटें,
उनके जीवन-पथ पर छितराया कुहरा छाँटें !
रँग दें घनघोर अँधेरे को
जगमग तीव्र उजालों से,
त्रासों और अभावों की निर्मम मारों से,
हारों को, लाचारों को
ढक दें, लद-लद पीले-लाल गुलाबों की
जयमालों से !
घर-घर जाकर सहमे-सहमे बच्चों को
प्यारी-प्यारी मोहक किलकारी दें,
कँकरीली और कँटीली परती पर
रंग-बिरंगी लहराती फुलवारी दें !
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अमानुषिक

आज फिर खंडित हुआ विश्वास,
आज फिर धूमिल हुई
अभिनव ज़िन्दगी की आस !
ढह गये साकार होती कल्पनाओं के महल !
बह गये अतितीव्र अतिक्रामक उफ़नते ज्वार में,
युग-युग सहेजे
भव्य-जीवन-धारणाओं के अचल !
आज छाये फिर प्रलय-घन,
सूर्यµ संस्कृति-सभ्यता का
फिर ग्रहण-आहत हुआ,
षड्यंत्रों-घिरा यह देश मेरा
आज फिर मर्माहत हुआ !
फैली गंध नगर-नगर
विषैली प्राणहर बारूद की,
विस्फोटकों से पट गयी धरती,
सुरक्षा-दुर्ग टूटे
और हर प्राचीर क्षत-विक्षत हुई !
जन्मा जातिगत विद्वेष,
फैला धर्मगत विद्वेष,
भूँका प्रांत-भाषा द्वेष,
गँदला हो गया परिवेश !
सर्वत्रा दानव वेश !
घुट रही साँसें, प्रदूषित वायु,
विष-घुला जल, छटपटाती आयु !
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इतिहास का एक पृष्ठ

सच है, घिर गये हैं हम
चारों ओर से / हर क़दम पर
नर-भक्षियों के चक्रव्यूहों में,
भौंचक-से खड़े हैं
लाशों-हड्डियों के ढूहों में !
सच है, फँस गये हैं हम
चारों ओर से / हर क़दम पर
नर-भक्षियों के दूर तक
फैलाए-बिछाए जाल में,
छल-छद्म की उनकी घिनौनी चाल में !

बारूदी सुरंगों से जकड़ कर
कर दिया निष्क्रिय हमारे लौह-पैरों को
हमारी शक्तिशाली दृढ़ भुजाओं को !
भर दिया घातक विषैली गंध से,
दुर्गन्ध से
चारों दिशाओं की हवाओं को !

सच है , उनके क्रूर पंजों ने
है दबा रखा गला,
भींच डाले हैं
हर अन्याय को करते उजागर
दहकते रक्तिम अधर !
मस्तिष्क की नस-नस
विवश है फूट पड़ने को,
ठिठक कर रह गये हैं हम !
खंडित पराक्रम
अस्तित्व / सत्ता का अहम् !

सच है कि
आक्रामक-प्रहारक सबल हाथों की
जैसे छीन ली क्षमता त्वराµ
अब न हम ललकार पाते हैं
न चीख पाते हैं,
स्वर अवरुद्ध मानवता-विजय-विश्वास का,
सूर्यास्त जैसे गति-प्रगति की आस का !
अब न मेधा में हमारी
क्रांतिकारी धारणाओं-भावनाओं की
कड़कती तीव्र विद्युत कौंधती है,
चेतना जैसे
हो गयी है सुन्न जड़वत् !
चेष्टाहीन हैं / मजबूर हैं,
हैरान हैं, भारी थकन से चूर हैं !

लेकिन नहीं अब और स्थिर रह सकेगा
आदमी का आदमी के प्रति
हिंसा-क्रूरता का दौर !
दृढ़ संकल्प करते हैं
कठिन संघर्ष करने के लिए,
इस स्थिति से उबरने के लिए!
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अग्नि-परीक्षा

काली भयानक रात,
चारों ओर झंझावात,
पर, जलता रहेगा — दीप...
मणिदीप सद्भाव का / सहभाव का !
उगती जवानी देश की होगी नहीं गुमराह !
उजले देश की जाग्रत जवानी
लक्ष्य युग का भूल होगी नहीं गुमराह
तनिक तबाह !

मिटाना है उसे —
जो कर रहा हिंसा,
मिटाना है उसे —
जो धर्म के उन्माद में फैला रहा नफ़रत,
लगाकर घात गोली दाग़ता है
राहगीरों पर / बेक़सूरों पर !
मिटाना है उसे —
जिसने बनायी;
धधकती बारूद-घर दरगाह !
इन गंदे इरादों से
नये युग की जवानी
तनिक भी होगी नहीं गुमराह !

चाहे रात काली और हो,
चाहे और भीषण हों
चक्रवात-प्रहार,
पर, सद्भाव का: सहभाव का
ध्रुव-दीप / मणि-दीप
निष्कम्प रह जलता रहेगा !
साधु जीवन की
सतत साधक जवानी / आधुनिक,
होगी नहीं गुमराह !

भले ही वज्रवाही बदलियाँ छाएँ,
भले ही वेगवाही आँधियाँ आएँ,
सद्भावना का दीप
सम्यक् धारणा का दीप
संशय-रहित हो
अविराम / यथावत्
जलता रहेगा !
एक पल को भी न टूटेगा
प्रकाश-प्रवाह !
विचलित हो,
नहीं होगी जवानी देश की गुमराह !
उभरीं विनाशक शक्तियाँ जब-जब,
मनुजता ने दबा कुचला उन्हें तब-तब !
अमर —
विजय विश्वास !
इतिहास
चश्मदीद गवाह !
जलती जवानी देश की होगी नहीं गुमराह !

एकता को तोड़ने की साज़िशें
नाकाम होंगी,
हम रहेंगे एक राष्ट्र अखंड
शक्ति प्रचंड !
सहन हरगिज़ नहीं होगा
देश के प्रति छल-कपट
विश्वासघात गुनाह !
मेरे देश की विज्ञान-आलोकित जवानी
अंध-कूपों में कभी होगी नहीं गुमराह !
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विचित्र

यह कितना अजीब है !
आज़ादी के तीन-तीन दशक
बीत जाने के बाद भी
पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत जाने के बाद भी
मेरे देश का आम आदमी ग़रीब है !
बेहद ग़रीब है !
यह कितना अजीब है !
सर्वत्रा धन का, पद का, पशु का
साम्राज्य है,
यह कैसा स्वराज्य है ?

धन, पद, पशु
भारत-भाग्य-विधाता हैं,
चारों दिशाओं में उन्हीं का जय-जयकार,
उन्हीं का अहंकार
व्याप्त है, परिव्याप्त है,
और सब-कुछ समाप्त है !
शासन अंधा है, बहरा है,
जन-जन का संकट गहरा है !
(खोटा नसीब है !)
लगता है — परिवर्तन दूर नहीं,
क़रीब है !
किन्तु आज यह सब
कितना अजीब है !
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संक्रमण

यह नहीं होगा —
बंदूक की नोक
सचाई को दबाये रखे,
आदमी को आततायी के
पैरों पर झुकाये रखे,
यह नहीं होगा !

पशुता की गुलामी
अनेकों शताब्दियाँ
ढो चुकी हैं,
लेकिन अब
ऐसा नहीं होगा !

यातनाओं की
किरचें भोथरी हो चुकी हैं,
क्या तुम नहीं देखते —
क्रूर जल्लादों की
वहशी योजनाओं की
बुनियादें हिल रही हैं ?
मौत की
काल-कोठरी बने
हर देश को
ज़िन्दगी की
हवा और रोशनी
मिल रही है !
घिनौनी साज़िशों का
पर्दा उठ गया है,
सारा माहौल ही
अब तो नया है !
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सद्भाव

आओ,
दूरियाँ देशान्तरों की, व्यक्तियों की
अत्यधिक सामीप्य में बदलें।
बहुत मज़बूत अन्तर-सेतु
बाँधें !

आओ,
अ-जनबीपन हृदय का
अनुभूतियों का
सांत्वना आश्वास में बदलें।
परस्पर मित्राता का गगन-चुम्बी केतु
बाँधें !

आओ,
अविद्या-अज्ञता धर्मान्तरों की
भिन्नता विश्वास की
समधीत सम्यक् बोध में बदलें।
सुनिश्चित विश्व-मानव-हेतु
साधें !
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अब नहीं

अब सम्भव नहीं
बीते युगों की नीतियों पर एक पग चलना,
निरावृत आज
शोषक-तंत्र की प्रत्येक छलना।

अब नहीं सम्भव तनिक
बीते युगों की मान्यताओं पर
सतत गतिशील
मानव-चेतना को रुद्ध कर बढ़ना।

सकल गत विधि-विधानों की
प्रकट निस्सारता,
किंचित नहीं सम्भव मिटाना अब
बदलते लोक-जीवन की नयी गढ़ना।

शिखर नूतन उभरता है मनुज सम्मान का,
हर पक्ष नव आलोक में डूबा निखरता है
दमित प्रति प्राण का,
नव रूप
प्रियकर मूर्ति में ढल कर सँवरता है
सबल चट्टान का।
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वर्तमान

युग —
अराजकता-अरक्षा का,
सतत विद्वेष-स्वर-अभिव्यक्ति का,
कटु यातनाओं से भरा,
अमंगल भावनाओं से डरा !
धूमिल
गरजते चक्रवातों ग्रस्त !
प्रतिक्षण अभावों-संकटों से त्रास्त !
युग —
निर्दय विघातों का,

असह विष दुष्ट बातों का !
अभोगी वेदना का,
लुप्त मानव-चेतना का !

घोर अनदेखे अँधेरे का !
अ-जनबी / शोर,
रक्तिम क्रूर जन-घातक सबेरे का !
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परिणति

आजन्म
अपमानित-तिरस्कृत
ज़िन्दगी
पथ से बहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?

आजन्म
आशा-हत
सतत संशय-भँवर उलझी
पराजित ज़िन्दगी
अविरत लहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?

आजन्म
वंचित रह
अभावों-ही-अभावों में
घिसटती ज़िन्दगी
औचट दहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?
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नवोन्मेष

खण्डित पराजित
ज़िन्दगी ओ ! सिर उठाओ,
आ गया हूँ मैं
तुम्हारी जय सदृश
सार्थक सहज विश्वास का हिमवान !

अनास्था से भरी
नैराश्य-तम खोयी
थकी हत-भाग सूनी
ज़िन्दगी ओ ! सिर उठाओ,
और देखो
द्वार दस्तक दे रहा हूँ मैं
तुम्हारे भाग्य-बल का
जगमगाता सूर्य तेजोवान !

ज़िन्दगी
इस तरह टूटेगी नहीं !
ज़िन्दगी
इस तरह बिखरेगी नहीं !
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अंधकार

शीत युद्ध से समस्त विश्व त्रास्त
हो रहा मनुष्य भय विमोह ग्रस्त !

डगमगा रही निरीह नीति-नाव
जल अथाह, नष्ट पाल-बंधु-भाव !

राष्ट्र द्वेष की भरे अशेष दाह
मित्राता प्रसार की निबद्ध राह !

मच रही अजीब अंध शस्त्र-होड़
पशु बना मनुज विचार-शक्ति छोड़ !

जन-विनाश चक्र चल रहा दुरंत
आज साधु-सभ्यता विहान अंत !

गूँजते चतुर्दिशा कठोर बोल
रम्य-शांति-राग का रहा न मोल !

एकता-सितार तार छिन्न-भिन्न !
हर दिशा उदास मूक खिन्न-खिन्न !

अस्त सूर्य, प्राण वेदना अपार
अंधकार, अंधकार, अधंकार !
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आलोक

मनुष्य का भविष्य —
अंधकार से, शीत-युद्ध-भय प्रसार से
मुक्त हो,मुक्त हो !
रश्मियाँ विमल विवेक की विकीर्ण हों,
शक्तियाँ विकास की विरोधिनी विदीर्ण हों !
वर्ग-वर्ण भेद से,
आदमी-ही-आदमी की क़ैद से
मुक्त हो, मुक्त हो !
चक्रवात, धूल, वज्रपात से
नवीन मानसी क्षितिज
घिरे नहीं, घिरे नहीं !
नये समाज का शिखर
गिरे नहीं, गिरे नहीं !
पुनीत दिव्य साधना,
विश्व-शांति कामना,
उषा समान भूमि को सिँगार दे,
त्रास्त जग उबार दे
प्यार से दुलार दे!
नवीन भावना-पराग
आग में झुलसµ
जले नहीं, जले नहीं !
अनेक अस्त्रा-शस्त्रा बल प्रहार से,
विषाक्त दानवी घृणा प्रचार से,
वर्तमान सभ्यता
मुक्त हो, मुक्त हो !
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दीप जलता है

दीप जलता है !
सरल शुभ मानवी संवेदना का स्नेह भरकर
हर हृदय में दीप जलता है !
युग-चेतना का ज्वार
जीवन-सिंधु में उन्मद मचलता है !
दीप जलता है !

तिमिर-साम्राज्य के
आतंक से निर्भय
अटल अवहेलना-सा दीप जलता है !

जगमगाता लोक नव आलोक से,
मुक्त धरती को करेंगे
अब दमन भय शोक से !

लुप्त होगा सृष्टि बिखरा तम
हृदय की हीनता का;
क्योंकि घर-घर
व्यक्ति की स्वाधीनता का
दीप जलता है !

बदलने को धरा
नव-चक्र चलता है !
नहीं अब भावना को
गत युगों का धर्म छलता है !
सकल जड़ रूढ़ियों की
शृंखलाएँ तोड़
नव, सार्थक सबल विश्वास का
ध्रुव-दीप जलता है !
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आज की ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हँसती हुई मुरझा गयी ;
चाँद पर बदली गहन आ छा गयी !

यामिनी का रूप सारा हर लिया
कामिनी को हाय विधवा कर दिया !

आदमी की सब बहारें छीन लीं,
उपवनों की फूल-कलियाँ बीन लीं !

फट गया मन लहलहाते खेत का,
बेरहम तूफ़ान आया रेत का !

उर-विदारक दीखता है हर सपन,
सब तरफ़ से चाहनाओं का दमन !

रीति बदलीं आधुनिक संसार की,
राह सारी मुड़ गयी हैं प्यार की !

सामने बस स्वार्थ का जंगल घना
दुर्ग जिसमें डाकुओं का है बना !

मौत की शहनाइयाँ बजती जहाँ,
रंग-बिरंगी अर्थियाँ सजती जहाँ !

लेटने को हम वहाँ मजबूर हैं,
वेदना से अंग सारे चूर हैं !

इस तरह लँगड़ी हुई है ज़िन्दगी
लड़खड़ाकर गिर रही लकवा लगी !
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मध्य-वर्ग (चित्र 1)

मेघों से घिरा आकाश है !
चहुँ ओर छाया,
बंद आँखों के सदृश,
गहरा अँधेरा,
घोंसलों में मूक चिड़ियाँ
ले रहीं सुख से बसेरा,
और हर अट्टालिका में
बज रहा मनहर पियानो, तानपूरा !

पर, टपकती छत तले
सद्यः प्रसव से एक माता आह भरती है !
मगर यह ज़िन्दगी इंसान की
मरती नहीं,
रह-रह उभरती है !
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मध्य-वर्ग (चित्र 2)

दस बज रहे हैं रात के —
काफ़ी दूर पर
कुछ बेसुरे-से ढोल बजते हैं
किसी बारात के !

अति-तार स्वर से
गा रहा है रेडियो सीलोन
बासी गीत फ़िल्मी
‘आन’ के ‘बरसात’ के !
पास के घर में
थकी-सी अर्द्ध-निद्रित
तीस वर्षीया कुमारी
करवटें लेती किसी की याद में !
क्लर्क है उसका पिता
और वह उलझा हुआ है
फ़ाइलों के ढेर में !
(ज़िन्दगी के फेर में !)
सोचता है —
रात काफ़ी हो गयी,
अब शेष देखा जायगा जी बाद में !
झँपने लगीं पलकें
बडे़ बेफ़िक्र बचपन की सहेजी याद में !
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भविष्यत्

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
अपार अंधकार है, प्रगाढ़ अंधकार है !
न चाँद है, न सूर्य,
बज रहा न सावधान-तूर्य !

मृत्यु के कगार पर
खड़ी मनुष्यता सभीत,
बार-बार लड़खड़ा रही !
कि उद्जनों व अणुबमों-प्रयोग से
कराह काँपती मही !
तबाह द्वीप हो रहे,
बड़े-बड़े नगर तमाम
देखते सदैव स्वप्न में ‘हिरोशिमा’ !
गगन विराट वक्ष पर
विकीर्ण लालिमा,
धुआँ, धुआँ, धुआँ !

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
प्रकाश चाहिए,
प्रकाश का प्रवाह चाहिए !
हरेक भुरभुरे कगार पर
सशक्त बाँध चाहिए !
अटल खड़ा रहे मनुष्य,
आँधियों के सामने
अड़ा रहे मनुष्य
शक्तिवान, वीर्यवान, धैर्यवान !

ज़िन्दगी तबाह हो नहीं,
कराह और आह हो नहीं !
हँसी, सफ़ेद दूधिया हँसी
हरेक आदमी के पास हो !
सुखी भविष्य की नवीन आस हो !
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लेखनी से —

लेखनी मेरी !
समय-पट पर चलो ऐसी कि जिससे
त्रास्त जर्जर विश्व का
फिर से नया निर्माण हो !
क्षत, अस्थि-पंजर, पस्त-हिम्मत
मनुज की सूखी शिराओं में
रुधिर-उत्साह का संचार हो !

ओ लेखनी मेरी, चलो !
साये हुए हैं जो
उन्हें उगते दिवाकर की ख़बर दो !
और पथ में जो रुके
उनको नयी ज्योतित डगर दो !
काफ़िला जो
रेत के नीचे दबा बेचैन है
उसे सतत आकाश-आरोहणमयी
नव-शक्ति दो !

भयभीत जो
उसको सबल विश्वास दो !
रोते हुए मुख पर रुपहला हास दो !

ओ लेखनी मेरी ! चलो,
जिससे कि दकियानूस-दुनिया के
सभी दृढ़ लौह बंधन टूट जाएँ,
और संस्कृति-सभ्यता की मूर्तियाँ सब
आततायी के विषैले क्रूर चंगुल से
सदा को छूट जाएँ !

ध्वंस पर
अभिनव-सृजन-आह्नान दो,
हर आदमी के कंठ में
श्रम का सबल मधु गान दो !
प्रत्येक उर में प्यार का सागर भरो,
धुँधले नयन में रोशनी घर-घर भरो
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निश्चय

एक दिन निश्चय
तुम्हारे हर घिनौने और ज़हरीले
इरादों की समस्त जड़ें
अवनि को फोड़ उखड़ेंगी।
एक दिन निश्चय
तुम्हारी बेरहम नंगी कि ख़ूनी
वासनाओं की सड़ी धारा
धरा की धमनियों को छोड़कर
आकाश-पथ पर सूख जाएगी !
तुम्हारे स्वप्न के
सारे गगन-चुंबी महल
अभिनव प्रखर स्वर्णिम सुबह तक
पत्थरों के ढेर में
निश्चय, बदल कर
भूमि पर सोते मिलेंगे !

आज जन-जन के हृदय में आग है,
मुँह से निकलती बात भी बेलाग है !
संघर्ष से हर आदमी को
हो गयी बेहद मुहब्बत,
ज़िंदगी की पड़ गयी आदत
हमेशा राह पर चलना !
निरंतर सूर्य-सा जलना !
मनुष्यों की अथक ऐसी
निडर, दृढ़ फौज़ उगती जा रही,
जिसके क़दम पड़ते
धरा सज्जा बदलती जा रही !
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बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !

कुछ लोग
चाहे ज़ोर से कितना
बजाएँ युद्ध का डंका
पर, हम कभी भी
शांति का झंडा
ज़रा झुकने नहीं देंगे !
हम कभी भी
शांति की आवाज़ को
दबने नहीं देंगे !

क्योंकि हम
इतिहास के आरम्भ से
इंसानियत में,
शांति में
विश्वास रखते हैं,
गौैतम और गांधी को
हृदय के पास रखते हैं !
किसी को भी सताना
पाप सचमुच में समझते हैं,
नहीं हम व्यर्थ में पथ में
किसी से जा उलझते हैं !

हमारे पास केवल
विश्व-मैत्री का,
परस्पर प्यार का संदेश है,
हमारा स्नेह —
पीड़ित ध्वस्त दुनिया के लिए
अवशेष है !

हमारे हाथ -
गिरतों को उठाएंगे,
हज़ारों
मूक, बंदी, त्रस्त, नत,
भयभीत, घायल औरतों को
दानवों के क्रूर पंजों से बचाएंगे !

हमें नादान बच्चों की हँसी
लगती बड़ी प्यारी;
हमें लगती
किसानों के
गड़रियों के
गलों से गीत की कड़ियाँ मनोहारी !

खुशी के गीत गाते इन गलों में
हम
कराहों और आहों को
कभी जाने नहीं देंगे !
हँसी पर ख़ून के छींटे
कभी पड़ने नहीं देंगे !
नये इंसान के मासूम सपनों पर
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !
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काटो धान

काटो धान, काटो धान, काटो धान !

सारे खेत
देखो दूर तक कितने भरे,
कितने भरे / पूरे भरे !
घिर लहलहाते हैं
न फूले रे समाते हैं !
हवा में मिल
कुसुम-से खिल !

उठो, आओ,
चलो, इन जीर्ण कुटियों से
बुलाता है तुम्हें, साथी खुला मैदान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

जब हिम-नदी का चू पड़ा था जल
अनेकों धार में चंचल,
हिमालय से बहायी जो गयी थी धूल
उसमें आज खिलते रे श्रमिक !
तेरे पसीने से सिँचे
प्रति पेड़ की हर डाल में
सित, लाल, पीले, फूल !
जीन के लिए देती तुम्हें
ओ ! आज भू माता सहज वरदान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

आकाश में जब घिर गये थे
मॉनसूनी घन सघन काले,
हृदय सूखे हुए
तब आश-रस से भर गये थे
झूम मतवाले !

किसी
सुन्दर, सलोनी, स्वस्थ, कोमल, मधु
किशोरी के नयन
कुछ मूक भाषा में
नयी आभा सजाए जगमगाए श्वेत-कजरारे !
हुए साकार
भावों से भरे
अभिनव सरल जीवन लिए,
नूतन जगत के गान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

जो सृष्टि के निर्माण हित बोए
तुम्हारी साधना ने बीज थे
वे पल्लवित !
सपने पलक की छाँह में
पा चाह
शीतल ज्योत्स्ना की गोद में खेले !
(अरी इन डालियों को बाँह में ले ले !)

उठो !
कन्या-कुमारी से अखिल कैलाश के वासी
सुनो, गूँजी नयी झंकार !
हर्षित हो उठो !
परिवार सारे गाँव के
देखो कि चित्रित हो रहे अरमान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

टूटे दाँत ,
सूखे केश,
मुख पर झुर्रियों की वह सहज मुसकान,
प्रमुदित मुग्ध
फैला विश्व में सौरभ
महकता नभ,
सजग हो आज
मेर देश का अभिमान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !
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मुख को छिपाती रही

धुआँ ही धुआँ है,
नगर आज सारा नहाता हुआ है !

अँगीठी जली हैं
व चूल्हे जले हैं,
विहग
बाल-बच्चों से मिलने चले हैं !
निकट खाँसती है
छिपी एक नारी
मृदुल भव्य लगती कभी थी,
बनी थी
किसी की विमल प्राण प्यारी !

उसी की शक़ल अब
धुएँ में सराबोर है !
और मुख की ललाई
अँधेरी-अँधेरी निगाहों में खोयी !

जिसे ज़िन्दगी से
न कोई शिकायत रही अब,
व जिसके लिए
है न दुनिया
भरी स्वप्न मधु से
लजाती हुयी नत !

अनेकों बरस से
धुएँ में नहाती रही है !
कि गंगा व यमुना-सा
आँसू का दरिया
बहाती रही है !
फटे जीर्ण दामन में
मुख को छिपाती रही है !

मगर अब चमकता है
पूरब से आशा का सूरज,
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही
दुख की शिकन !
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अजेय

मुझको मिली कब हार है !

तुम रोकते हो क्यों मुझे ?
तुम टोकते हो क्यों मुझे ?
धधका निराशा का अनल
तुम झोंकते हो क्यों मुझे ?
हैं अमर मेरे प्राण, मेरा अमर हर उद्गार है !

रुकना मुझे भाता नहीं,
थकना मुझे आता नहीं,
सह लक्ष-लक्ष प्रहार भी
झुकना मुझे आता नहीं,
प्रत्येक क्षण गतिवान जीवन, शक्ति का संसार है !

मैं बढ़ रहा तूफ़ान में,
ले क्रांति-ज्वाला प्राण में,
वरदान मुझको मिल रहा
प्रतिपद अभय बलिदान में,
नौका भँवर में हो फँसी, साहस अथक पतवार है !
=============================================

पहली बार

विश्व के इतिहास में
जनता सबल बन
आज पहली बार जागी है,
कि पहली बार बाग़ी है !

पुरानी लीक से हटकर
बड़ी मज़बूत चट्टानी रुकावट का
प्रबलतम धार से कर सामना डट कर,
विरल निर्जन कँटीली भूमि पथरीली
विलग कर, पार कर
जन-धार उतरी
मानवी जीवन धरातल पर
सहज अनुभूति अंतस-प्रेरणा बल पर !

कि पहली बार छायी हैं
लताएँ रंग-बिरँगी ये
कि जिनकी डालियों पर
देश की संकीर्ण रेखाएँ
सभी तो आज धुँधली हैं !
क्योंकि
अंतर में सभी के
एक से ही दर्द की
व्याकुल दहकती लाल चिनगारी
नवीना सृष्टि रचने की प्रलयकारी !

क़दम की एकता यह आज पहली है,
तभी तो हर विरोधी चोट सह ली है !

गुज़र गये हैं
हहरते क्रुद्ध भीषण अग्नि के तूफ़ान
जिनका था नहीं अनुमान
सभी के स्वत्व के संघर्ष में युग-व्यस्त
भावी वर्ष-सम साधक
भुवन प्रत्येक जन-अधिकार का रक्षक !
केलीफ़ोर्निया की मृत्यु-घाटी से,
कलाहारी, सहारा, हब्स, टण्ड्रा से
मिटी अज्ञान की गहरी निशा,
ज्योतित नये आलोक से रे हर दिशा !
निर्माण हित उन्मुख जगत जनता

विविध रूपा
विविध समुदाय
बैठा अब नहीं निरुपाय
उसको मिल गया
सुख-स्वर्ग का नव मंत्र
मुक्त स्वतंत्रा !

उसका विश्व सारा आज अपना है,
नहीं उसके लिए कोई पराया, दूर सपना है !
युगान्तर पूर्व युग-जीवन विसर्जन
दृढ़ अटल विश्वास के सम्मुख सभी
अन्याय पोषित भावनाओं का
हुआ अविलम्ब निर्वासन !

बुझते दीप फिर से आज जलते हैं,
कि युग के स्नेह को पाकर
लहर कर मुक्त बलते हैं !
सघन जीवन-निशा विद्युत लिये
मानो अँधेरे में बटोही जा रहा हो टॉर्च ले
जब-जब करें डगमग चरण
तब-तब करे जगमग
उभरता लोक-जीवन मग !

कल्मष नष्ट,
पथ से भ्रष्ट!

दूर कर आतंक,
नहीं हो नृप न कोई रंक !

अभी तक जो रहे युग-युग उपेक्षित
वे सँभल कर सुन रहे
विद्रोह की ललकार !
पहली बार है संसार का इतना बड़ा विस्तार,
कि पहली बार इतनी आज कुर्बानी अपार !
========================================

ज़िन्दगी कैसे बदलती है !

यह झोपड़ी है फूस की,
जिसकी पुरानी भग्न दीवारें,
व आधी छत खुली!

इस रात में
जो है बड़ी ठंडी,
खड़ी है मौन, तम से ग्रस्त !

उसमें ले रहे हैं साँस
कोई तीन प्राणी,
हार जिनने
आज तक किंचित न मानी !
भूमि पर लेटे हुए,
गुदड़ी समेटे और गट्ठर से बने
निज ज्वाल-जीवन से हरारत पा
कुहर के बादलों में गर्म साँसें खींचते हैं !
और उसका शक्तिशाली उर
दबाकर भेदते हैं !

भग्न यदि दीवार है
पर, भग्न आशा है नहीं !
विश्वास धूमिल
और दृढ़ आवाज़ बंदी है नहीं !
कल देख लेना
ज़िन्दगी कैसे बदलती है !
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नयी नारी

तुम नहीं कोई
पुरुष की ज़र-ख़रीदी चीज़ हो,
तुम नहीं
आत्मा-विहीना सेविका
मस्तिष्क हीना-सेविका,
गुड़िया हृदयहीना !

नहीं हो तुम
वहीं युग-युग पुरानी
पैर की जूती किसी की,
आदमी के
कुछ मनोरंजन-समय की वस्तु केवल !
तुम नहीं कमज़ोर,
तुमको चाहिए ना सेज फूलों की !
नहीं मझधार में तुम
अब खड़ी शोभा बढ़ातीं
दूर कूलों की !

अब दबोगी तुम नहीं
अन्याय की सम्मुख,
नयी ताक़त, बड़ा साहस
ज़माने का तुम्हारे साथ है !
अब मुक्त कड़ियों से
तुम्हारे हाथ हैं !
तुम हो न सामाजिक न वैयक्तिक
किसी भी क़ैदखाने में विवश,
अब रह न पाएगा
तुम्हारे देह-मन पर
आदमी का वश
कि जैसे वह तुम्हें रक्खे, रहो,
मुख से न अपने भूल कर भी
कुछ कहो !
जग के करोड़ों आज युवकों की तरफ़ से
कह रहा हूँ मैं —
‘तुम्हारा ‘प्रभु’ नहीं हूँ,
हाँ, सखा हूँ !
और तुमको
सिर्फ़ अपने
प्यार के सुकुमार-बंधन में
हमेशा बाँध रखना चाहता हूँ !
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मशाल

बिखर गये हैं ज़िन्दगी के तार-तार !
रुद्ध-द्वार, बद्ध हैं चरण,
खुल नहीं रहे नयन ;
क्योंकि कर रहा है व्यंग्य
बार-बार देखकर गगन !
भंग राग-लय सभी
बुझ रही है ज़िन्दगी की आग भी !
आ रहा है दौड़ता हुआ

अपार अंधकार !
आज तो बरस रहा है विश्व में
धुआँ, धुआँ !
शक्ति लौह के समान ले
प्रहार सह सकेगा जो
जी सकेगा वह !
समाज वह —
एकता की शृंखला में बद्ध,
स्नेह-प्यार-भाव से हरा-भरा
लड़ सकेगा आँधियों से जूझ !

नवीन ज्योति की मशाल
आज तो गली-गली में जल रही,
अंधकार छिन्न हो रहा,
अधीर-त्रास्त विश्व को उबारने
अभ्रांत गूँजता अमोघ स्वर,
सरोष उठ रहा है बिम्ब-सा
मनुष्य का सशक्त सर !
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ग्रीष्म

तपता अम्बर, तपती धरती,
तपता रे जगती का कण-कण !

त्रास्त विरल सूखे खेतों पर
बरस रही है ज्वाला भारी,
चक्रवात, लू गरम-गरम से
झुलस रही है क्यारी-क्यारी,
चमक रहा सविता के फैले
प्रकाश से व्योम-अवनि-आँगन !

जर्जर कुटियों से दूर कहीं
सूखी घास लिए नर-नारी,
तपती देह लिए जाते हैं,
जिनकी दुनिया न कभी हारी,
जग-पोषक स्वेद बहाता है,
थकित चरण ले, बहते लोचन !

भवनों में बंद किवाड़ किये,
बिजली के पंखों के नीचे,
शीतल ख़स के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे,
वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन !

रोग-ग्रस्त, भूखे, अधनंगे
दमित, तिरस्कृत शिशु दुर्बल,
रुग्ण दुखी गृहिणी जिसका क्षय
होता जाता यौवन अविरल,
तप्त दुपहरी में ढोते हैं
मिट्टी की डलियाँ, फटे चरण !
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नारी

चिर-वंचित, दीन, दुखी बंदिनि! तुम कूद पड़ीं समरांगण में,
भर कर सौगन्ध जवानी की उतरीं जग-व्यापी क्रन्दन में,
युग के तम में दृष्टि तुम्हारी चमकी जलते अंगारों-सी,
काँपा विश्व, जगा नवयुग, हृत-पीड़ित जन-जन के जीवन में !

अब तक केवल बाल बिखेरे कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसू भरकर काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर-स्पर्शित पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम निकली हो बनकर अभिशापिन!

बलिदानों की आहुति से तुम भीषण हड़कम्प मचा दोगी,
संघर्ष तुम्हारा न रुकेगा त्रिभुवन को आज हिला दोगी,
देना होगा मूल्य तुम्हारा पिछले जीवन का ऋण भारी,
वरना यह महल नये युग का मिट्टी में आज मिला दोगी !

समता का, आज़ादी का नव-इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम तो आग लगाने को आयीं,
है साथी जग का नव-यौवन, बदलो सब प्राचीन व्यवस्था,
वर्ग-भेद के बंधन सारे तुम आज मिटाने को आयीं !
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