• अनुभूतियाँ : एक हताश व्यक्ति की
— महेंद्रभटनागर
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[1] विडम्बना
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ज़िंदगी सकून थी; कराह बन गयी
ज़िंदगी पवित्र थी; गुनाह बन गयी,
न्याय-सत्य -पक्षकी तरफ़ रही सदा
ज़िंदगी : फ़रेब की गवाह बन गयी!
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[2]परिणाम
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हमने न हँसने की अरे, सौगंध तो खायी न थी,
यह नहायी आँसुओं की ज़िंदगी फिर मुसकुरायी क्यों नहीं?
हमने अँधेरे से कभी रिश्ता बनाया ही नहीं,
स्याह फिर रातें हमारी रोशनी से जगमगायी क्यों
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[3] यथावत्
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ज़िंदगी में याद रखने योग्य कुछ भी तो हुआ नहीं
बद्दुआ जानी नहीं, पायी किसी की भी दुआ नहीं
अजनबी-अनजान अपने ही नगर में मूक हम रहे
शत्रुता या मित्रता रख कर किसी ने भी छुआ नहीं!
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[4]अप्राप्य
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कहाँ वह पा सका जीवन कि जिसकी साधना की,
कहाँ वह पा सका चाहत कि जिसकी कामना की,
अधूरी मूर्ति है अब-तक कि जिसको ढालने की
सतत निष्ठाभरे मन से कठिनतम सर्जना की!
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[5] कहाँ जाएँ
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वेदना ओढ़े
कहाँ जाएँ!
उठ रहीं लहरें अभोगे दर्द की
कैसे सहज बन मुस्कुराएँ!
रुँधा है कंठ
कैसे गीत में उल्लास गाएँ!
टूटे हाथ जब
कैसे बजाएँ साज़,
सन्न हैं जब पैर
कैसे झूम कर नाचें व थिरकें आज!
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खंडित ज़िंदगी —
टुकड़े समेटे, अंग जोड़े,
लड़खड़ाते
रे कहाँ जाएँ!
दिशा कोई हमें
हमदर्द कोई तो बताए!
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[6] विवश
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अपना बसेरा छोड़ कर
अब हम कहाँ जाएँ?
नहीं कोई कहीं —
अपना समझ
जो राग से / सच्चे हृदय से
मुक्त अपनाए!
देखते ही तन
गले में डाल बाहें झूम जाए,
प्यार की लहरें उठें
जो शीर्ण इस अस्तित्व को
फिर-फिर समूचा चूम जाए!
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शेष —
हत वीरान यह जीवन
सदा को पा सके निस्तार,
ऐसी युक्ति कोई तो बताए!
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[7] दुर्भाग्य
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बेहद खूबसूरत थी हमारी ज़िंदगी;
लेकिन अचानक एक दिन
यों बदनुमा … बदरंग कैसे हो गयी?
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भूल कर भी;
जब नहीं की भूल कोई
फिर भुलावों-भटकनों में
राह कैसे खो गयी?
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रे, अब कहाँ जाएँ,
इस ज़िंदगी का रूप-रस फिर
कब … कहाँ पाएँ?
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अधिक अच्छा यही होगा
हमेशा के लिए
चिर-शांति में चुपचाप सो जाएँ!
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[8] वास्तविकता
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पछ्तावा ही पछ्तावा है!
मन :
तीव्र धधकता लावा है!
जब-तब
चट-चट करते अंगारों का
मर्मान्तक धावा है!
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संबंध निभाते,
अपनों को अपनाते,
गले लगाते,
उनके सुख-दुख में
जीते कुछ क्षण,
करते सार्थक रीता जीवन!
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लेकिन सब व्यर्थ गया,
कहते हैं —
होता है फिर-फिर जन्म नया,
पर, लगता यह सब बहलावा है!
सच, केवल पछ्तावा है!
शेष छ्लावा है!
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[9] पुन: प्रारम्भ
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इस ज़िंदगी को
यदि पुनः
जीया जा सके —
तो शायद
सुखद अनुभूतियों के
फूल खिल जाएँ!
हृदय को
राग के उपहार मिल जाएँ!
आत्मा में मनोरम कामनाओं की
सुहानी गंध बस जाए
दूर कर अंतर / परायापन
कि सब हो एकरस जाएँ!
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किंतु क्या संभव पृथक होना
अतीत-व्यतीत से,
इतिहास के अभिलेख से,
पूर्व-अंकित रेख से?
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[10] सत्य
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दिल भारी है,
बेहद भारी है;
पग-पग पर लाचारी है!
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रो लें,
मन-ही-मन रो लें,
एकांत क्षणों में रो लें!
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असह घुटन है, बड़ी थकन है!
हलके हो लें,
हाँ, कुछ हलके हो लें!
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रुदन —
मनुज का जनम-जनम का साथी है,
स्वार्थी है,
स्व-हित साधक है / संरक्षक है !
रो लें!
सारा कल्म्ष धो लें!
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रोना —
स्वाभाविक है, नैसर्गिक है!
रोना —
जीवन का सच है,
रक्षा-मंत्र कवच है!
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[11] भ्रम
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असह है, आह!
प्रीति का निर्वाह —
छ्ल-छद्म मय,
मिथ्या … भुलावा
झूठ … मायाजाल!
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तब यह ज़िंदगी —
गदली - कुरूपा अति भयावह
धधकता दह!
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[12] आश्चर्य
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गवाँ सब,
बेमुरौवत धूर्त दुनिया में
अकेले रह गये,
सचाई महज़
कहना चाहते थे
और ही कुछ कह गये!
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जिसे समझा किये अपना
उसी ने मर्मघाती चोट की,
उसी की बेवफ़ाई
हम
अरे, खामोश कैसे सह गये!
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[13] भुक्तभोगी
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रौरव नरक-कुंड में
मर-मर जीना कैसा लगता है
कोई हमसे पूछे!
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सोचे-समझे, मूक विवश बन
विष के पैमाने पीना कैसा लगता है
कोई हमसे पूछे!
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हृदयाघातों को सह कर हँस-हँस
अपने हाथों, अपने घावों को
सीना कैसा लगता है
कोई हमसे पूछे!
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[14]तृषित
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बहुत प्यासा हूँ,
प्यासा बहुत हूँ!
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ज़िंदगी —
बेहद उदास-हताश है,
ग़मगीन है मन
विरक्त / उजाड़ / उचाट!
बुझती नहीं प्यास
कंठ-चुभती प्यास
बुझती नहीं!
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प्यासा रहा भर-ज़िंदगी,
बेचैन हो-हो
बहुत तड़पा-छ्टपटाया …
भागा / बेतहाशा
इस मरुभूमि … उस मरूभूमि भागा,
जहाँ भी, ज़रा भी दी दिखाई आस
भागा!
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बुझाने प्यास
सब सहता रहा; दहता रहा
लपट-लपट घिर,
सिर से पैर तक
गलता-पिघलता रहा!
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अतृप्त अबुझ सनातन प्यास ले
एक दिन दम तोड़ दूंगा,
रसों डूबी
नहायी तर-बतर
रंगीन दुनिया छोड़ दूंगा!
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[15] विश्वास
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जीवन चाहता जैसा
उसे पाने
अभी भी मैं प्रतीक्षा में!
सहज हो जी रहा
इस आस पर, विश्वास पर
जैसा कि जीवन चाहता —
आएगा … ज़रूर-ज़रूर आएगा
एक दिन!
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चाहता जो गीत मैं गाना
विकल रचना-चेतना में
भावना-विह्वल
सजग जीवित रहेगा,
और उतरेगा उसी लय में
किसी भी क्षण
जिस तरह मैं
चाहता हूँ गुनगुनाना!
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ऊमस-भरा
बदला नहीं मौसम,
वांछित
बरसता नेह का सावन नहीं आया,
वांछित
सरस रंगों भरा माधव नहीं छाया!
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फुहारो! मोह-रागो!
बाट जोहूंगा तुम्हारी,
एक दिन
सच, रिमझिमाएगा
अनेक-अनेक मेघों से लदा आकाश!
दहकेंगे हज़ारों लाल-लाल पलाश!
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[16] व्यतीत
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दिख रहा अतीत साफ़
फिल्म की तरह —
सवाक् रंगमय सजीव!
पृष्ठभूमि में ध्वनित
अमंद वाद्य- गीत!
(द्रश्य वास्तविक अतीव!)
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उतर-उभर रहे तमाम चित्र
हार / जीत के
शत्रु / मीत के,
क्रोध— आग के
नेह — राग के!
आह, ज़िंदगी
थकी-थकी / बुझी-बुझी
अचान
किसी पड़ाव पर
लहर - लहर
ठहर गयी!
बिखर - बिखर सिमट गयी,
उलट - पुलट गयी!
अपूर्व शांति है,
न वाद या विवाद,
शेष सिर्फ़ याद!
दुराव है न भेद है!
हर्ष है न खेद है!
न चाह है,
न राह है!
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