Tuesday, June 8, 2010

भेंट-वार्ता : महेंद्रभटनागर

कवि महेंद्रभटनागर : भेंट-वार्ता
[प्रोफ़ेसर आदित्य प्रचण्डिया]

आपका पारिवारिक परिवेश क्या रहा?
मेरे पिता श्री. रघुनन्दनलाल जी ग्वालियर-रियासत में अल्प-वेतन-भोगी अध्यापक थे। हमारा परिवार निर्धन था। पिता जी ने प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में ‘आगरा विश्वविद्यालय’ की स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की थी — इतिहास विषय में। पिता जी शिक्षाविद् होने के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। ग्वालियर-रियासत शाखा ‘बॉय स्काउट’ से सम्बद्ध थे। मैं भी, उनके साथ एकाधिक केम्पों में शामिल हुआ। ‘आर्य समाज’ नियमित जाते थे। घर पर, प्रात:काल ‘हवन’ होता था — वैदिक ऋचाओं के साथ। मैं भी भाग लेता था। वॉली-बॉल के अच्छे खिलाड़ी थे। फलस्वरूप मैं भी अनेक खेलों में भाग लेता रहा — हॉकी, फुटबॉल, वॉली-बॉल, कबड्डी, खो-खो और ऐथेलेटिक्स में (हाई-जम्प)।
मेरी माँ श्रीमती गोपाल देवी आदर्श गृहिणी थीं। हिन्दी और उर्दू की ज्ञाता थीं। ‘श्रीरामचरित मानस’ का पाठ नियमित करती थीं। वैष्णव थीं। छुआछूत मानती थीं। रसोई में प्याज-लहसुन वर्जित था। बुंदेलखंडी लोकगीतों में उनकी विशेष रुचि थी। बचपन में अनेक लोक-कथाएँ उनसे सुनीं। घर में गायन के कार्यक्रम प्राय: होते रहते थे —ढोलक-मजीरों पर। बाद में, हारमोनियम भी। मुहल्ले की औरतें इकट्ठी होती थीं। घर में ख़ूब तीज-त्योहार मनते थे। घर के सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव मेरे मानस पर पड़ना स्वाभाविक था। माँ मूर्तिपूजक थीं; पिता जी आर्य-समाजी। लेकिन परस्पर कभी विवाद नहीं हुआ। घर में माँ की ही चलती थी। पिता जी ने कभी कोई बाधा नहीं डाली। न विरोध किया। उदार और सहनशील वातावरण में मैं पला-बढ़ा।

साहित्य-लेखन में आप कैसे और किसकी प्रेरणा से आए?
मेरे साहित्य-सर्जन के प्रेरक तत्त्वों में पारिवारिक परिवेश प्रमुख है।
प्रारम्भिक कक्षाओं की हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकों में संकलित कविताओं में भी मेरी रुचि रही। संकलित कविताएँ बहुत चाव से पढ़ता था। आनन्दित होता था। प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम-परिवेश में हुई। सबलगढ़ (मुरैना — मध्य-प्रदेश) में। ग्राम-परिवेश और प्रकृति ने मुझे आकर्षित किया। सबलगढ़ के जंगलों में ख़ूब घूमा — भटका। गरम प्रदेश में रहा; एतदर्थ रात में सोना छत पर होता था। चाँद-तारों से रिश्ता बढ़ा। इस सब की अभिव्यक्ति मेरी प्रारम्भिक रचनाओं में देखी जा सकती है। आगे चलकर, आवासीय उपनगर मुरार (ग्वालियर) में प्राय: आयोजित कवि-सम्मेलन / मुशायरे मुझे कविता और कवियों से जोड़ने में सहायक हुए। मैं भी लुक-छिप कर काव्य-रचना (तुकबंदियाँ) करने लगा। नवम्बर सन् १९४१ के पूर्व जो काव्य-सृष्टि की वह अप्राप्य है। इस काल में, प्रकृति मेरी कविता की सहचरी रही।
सत्र १९४१-४२ विक्टोरिया कॉलेज ग्वालियर में, उच्च-शिक्षा हेतु प्रवेश लिया (उम्र १५ वर्ष)। अंग्रेज़ी और हिन्दी के अतिरिक्त अध्ययन के अन्य विषय थे — अर्थशास्त्र और भूगोल। कॉलेज के माहौल और अध्ययन-विषयों ने मेरे चिन्तन को नयी दिशा दी। द्वितीय विश्व-युद्ध की पृष्ठभूमि और भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की गतिविधियों ने मुझे प्रकृति से समाजार्थिक धरातल पर ला खड़ा किया। यह काल मेरे लिए बौद्धिक चेतना का काल रहा।

आपने किन-किन विधाओं में लिखा है?
मेरा साहित्य-लेखन कविता-विधा से प्रारम्भ हुआ। आगे भी कविता मेरे लेखन की प्रमुख विधा रही और आज भी है। अधिकतर लघु-विस्तारी कविताएँ और गीत ही लिखे। चूँकि अध्यापक रहा; अत: आलोचना-कर्म में भी सहज प्रवृत्त हुआ। आलोचक के नाते हिन्दी-जगत् में पर्याप्त सम्मान मिला। विभिन्न विधाओं के अनेक रचनाकारों से संबंध स्थापित हुए। एक बृहत साहित्यिक परिवार का अंग बन जाना; स्वयं में एक सुखद अनुभव रहा। किन्तु, जीवन-संघर्ष और समयाभाव आलोचना-कर्म में बाधक रहे। अध्ययन और लेखन के लिए वांछित सुविधाएँ न पा सका। कवि-कर्म की गति भी मंथर रही। आज-तक लगभग एक-हज़ार कविताओं की ही रचना कर सका। साहित्य-लेखन मेरा पेशा नहीं रहा। कविता और आलोचना के अतिरिक्त लघु-कथाएँ, एकांकी / रूपक और बाल-साहित्य की कुछ कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं।

आपके काव्य-गुरु कौन हैं? उनसे आपने कितनी प्रेरणा ली?
‘काव्य-गुरु’ जैसा तो कोई नहीं। हाँ, दो वरिष्ठ यशस्वी कवियों के निकट सम्पर्क में अवश्य रहा। वे हैं — श्री. जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द (सन् १९४१ से) और श्री. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ (सन्१९४५ से)। इनसे पारिवारिक संबंध भी रहे। मिलिन्द जी ने मेरी कविताएँ अपने साप्ताहिक पत्र ‘जीवन’ में प्रकाशित कीं। वैसे अपने समय के अनेक कवियों की रचनाएँ मुझे भाती रही थीं। यथा — मैथिलीशरण गुप्त (‘साकेत’, ‘यशोधरा’), जयशंकर प्रसाद (‘आँसू’, ‘कामायनी’), सुमित्रानंदन पंत (‘पल्लव’, गुंजन’, ‘ग्राम्या’), निराला, महादेवी वर्मा, ‘बच्चन’, एवं अनेक लब्ध-प्रतिष्ठ कवियों की फुटकल रचनाएँ।

आपकी दृष्टि में कविता क्या है?
कविता को परिभाषित करना साहित्याचार्यों का काम है। कवि का संबंध कविता के रचना-पक्ष से है; सैद्धांतिक पक्ष से नहीं। अन्यथा भी, आज-तक कविता की कोई परिभाषा निश्चित नहीं हो सकी है। मैंने जब-तब कविता के संबंध में विमर्श किया ज़रूर है। महत्त्व की दृष्टि से कविता के प्रमुख तत्त्वों का क्रम मेरे लिए इस प्रकार है — भाव, विचार, कल्पना, शिल्प। महाकवि तुलसीदास के इन कथनों से सहमत हूँ :
 कीरति भणति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
• हृदय सिन्धु मति सीप समाना।
स्वाती सारद कहहिं सुजाना॥
जो बरखे बर बारि विचारू।
होंहि कवित मुक्ता मनि चारू॥

• गीत मेरे लिए है :
“ सूक्ष्म पावन अनुभूतियों-भावनाओं-संवेदनाओं, विराट कल्पनाओं और उदात्त विचारों की सुन्दर सहज स्वत:स्फूर्त संगीतमयी अभिव्यक्ति गीत है।”

आज की कविता आपके निकष पर कहाँ ठहरती है?
आज की हिन्दी-काविता का स्वरूप बदल गया है। माना, अपने परम्परागत स्वरूप में भी वह आज लिखी जा रही है। इन दोनों प्रकार की कविताओं से जिन पाठकों का आवर्जन होता है; उनकी मानसिक बनावट समान नहीं है। मात्र भावुकता, तुकबंदी, बासी उपमानादि, घिसे-पिटे शब्द आदि वर्तमान वैज्ञानिक युग के बुद्धिजीवियों को क़तई पसंद नहीं। अभिव्यक्ति-सौन्दर्य में नयापन वर्तमान युग के रचनाकारों और प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष बुनियादी तत्त्व हैं। हिन्दी भाषा की कथन-भंगिमाएँ भी आश्चर्यजनक रूप से अभिनव रूप में लक्षित हो रही हैं। शब्दों और शब्द-रूपों में समृद्धि निरन्तर हो रही है। हिन्दी में फ़ारसी शब्द ही नहीं; अंग्रेज़ी शब्द-प्रयोग भी अपने सहज रूप में अवतरित हो रहे हैं। एक वैश्विक वातावरण आज की हिन्दी-कविता में द्रष्टव्य है। हिन्दी-कविता का यह धन-पक्ष है। माना, इसके समान्तर दुरूह, असंगत, बोझिल, उबाऊ अभिव्यक्तियाँ भी हिन्दी-काव्य में जमकर-खुलकर लिपिबद्ध हो रही हैं। यह कचरा दिन-पर-दिन बढ़ता जा रहा है। कौन पढ़ता है इसे?

आपने छायावादोत्तर काल से कविता लिखना शुरू किया और आज तक सक्रिय हैं। आप किस खेमे के कवि हैं? प्रगतिवादी-जनवादी या कुछ और?
मेरा काव्य-लेखन सन्१९४१ के लगभग अंत से प्रारम्भ होता है। इस समय तक हिन्दी-कविता अपनी अनेक मंज़िलें तय कर चुकी होती है। सन् १९३६ से प्रगतिवाद की दुंदुभी बजने लगी थी। सन् १९४३ में ‘तार-सप्तक’ आ गया। हिन्दी-कविता के तत्कालीन परिदृश्य का परिज्ञान मुझे सन् १९४५-४६ से ही हो पाता है। इसके पूर्व का काल मेरे छात्र-जीवन का काल रहा। क्रमश: हिन्दी कवियों और उनकी काव्य-उपलब्धियों को जानने-समझने का क्रम चला। छायावादोत्तर हिन्दी-कविता की दो धाराएँ — राष्ट्रीय उद्बोधन और गीति-रचना की — अविच्छिन्न चलती रहीं। लेकिन कविता-क्षेत्र में मेरे प्रवेश के समय प्रगतिवाद प्रतिष्ठित हो चुका था। सन् १९४५-४६ से मैं प्रगतिवादी कविता की मूल धारा से जुड़ा। ‘हंस’ के माध्यम से। अमृतराय, त्रिलोचन शास्त्री, ग. म. मुक्तिबोध, पहाड़ी, नागार्जुन, बैजनाथसिंह ‘विनोद’ आदि साहित्यिक पत्रों के सम्पादकों ने मेरे काव्य-कर्तृत्व में रुचि ली। प्रगतिवादी कविता का यह दूसरा दौर था। पूर्व के अधिकांश प्रगतिवादी कवि उम्र में मुझसे एक दशक अधिक थे। इसी कारण, कुछ समीक्षकों ने, इस काल की प्रगतिवादी कविता को ‘नवप्रगतिवाद’ के नाम से अभिहित किया है; यद्यपि यह नाम प्रचलित हुआ नहीं। बहुत शीघ्र ‘प्रयोगवाद’ और ‘नयी कविता’ की काव्य-धाराएँ उभर कर आ-छा गयीं। ‘अज्ञेय’ इस लेखन के पुरोधा बने। ‘प्रतीक’ में मैंने भी लिखा। लेकिन सप्तक-परम्परा से अपने को जोड़ना नहीं चाहा। ग.म. मुक्तिबोध और गिरिजाकुमार माथुर ने पहल भी की।
[द्रष्टव्य — मुक्तिबोध-लिखित ‘टूटती शृंखलाएँ’ की समीक्षा — “इस तरह वह (महेंद्रभटनागर) ‘तार-सप्तक’ के कवियों की परम्परा में आता है; जिन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी-काव्य की छायावादी प्रणाली को त्याग कर नवीन भावधारा के साथ-साथ नवीन अभिव्यक्ति शैली को स्वीकृत किया है। इस शैली की यह विशेषता है कि नवीन विषयों को लेने के साथ-साथ नवीन उपकरणों को और नवीन उपमाओं को भी लिया जाता है तथा काव्य को हमारे यथार्थ जीवन से संबंधित कर दिया जाता है। इसे हम वस्तुवादी मनोवैज्ञानिक काव्य कह सकते हैं। ...... किन्तु सबसे बड़ी बात यह है, जो उन्हें पिटे-पिटाये रोमाण्टिक काव्य-पथ से अलग करती है और ‘तार-सप्तक’ के कवियों से जा मिलाती है वह यह है कि अत्याधुनिक भावधारा के साथ टेकनीक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनका (महेंद्रभटनागर का) उत्तरकालीन काव्य मॉडर्निस्टक या अत्याधुनिकतावादी हो जाता है।’’]
और श्री. गिरिजाकुमार माथुर का ‘आलोचना’ (जुलाई १९५४, पृ. ६४) में प्रकाशित आलेख :
[“ शताब्दी के अर्धचरण तक आते-आते नए कवियों की एक और पीढ़ी उठकर साहित्य-क्षितिज पर आई। धर्मवीर भारती, हरि व्यास, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, शकुन्त माथुर, महेन्द्रभटनागर, सर्वेश्वरदयाल, मदन वात्स्यायन, विजयदेव साही, नामवर सिंह, सिद्धनाथ कुमार, राजनारायण बिसारिया आदि कितने ही नये कवि हमारे सामने हैं।’’]
— इनमें से अधिकांश ‘सप्तक’ संकलनों में विद्यमान हैं।
इन्हीं दिनों प्रगतिवादी समीक्षकों में मतभेद उभरे। डा. रामविलास शर्मा, रांगेय राघव, अमृतराय आदि में सैद्धांतिक वाद-विवाद छिड़ गया। प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त और शिवदानसिंह चौहान पर्याप्त संतुलित रहे। हिन्दी-कविता की मूल धारा से जुड़े रहने के फलस्वरूप मेरा कविता-लेखन विकसित होता रहा। किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति मैं कभी प्रतिश्रुत नहीं रहा; यद्यपि समाजवादी-साम्यवादी समाज-व्यवस्था का समर्थक ज़रूर रहा। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘जनवादी लेखक संघ’ की विचार-धारा से मेरा चिन्तन पर्याप्त मेल खाता है; अत: साहित्य के इन आन्दोलनों में मेरी भी अपनी भूमिका रही। कट्टर वामपंथियों ने मुझे समर्थक (sympathizer) समझा; पर मुझे प्रमुखता (high light) नहीं दी। वाम-विरोधी जान-बूझ कर उदासीन रहे। चूँकि सदैव स्वतंत्र रहा; अत: निर्बाध गति से अपनी भावनाओं-संवेदनाओं-विचारों को काव्याभिव्यक्ति प्रदान करता रहा। कोई क्या कहेगा; ऐसा कभी नहीं सोचा। मेरे काव्य-कर्तृत्व में विषय-वैविध्य के पाये जाने का रहस्य यही है। मेरी विचारणा सचेत अवस्था-अनुस्यूत है; उसमें असंगति-विसंगति का आरोपण करना बेमानी है। स्वतंत्र रचनाकार एक खूँटे से बँध कर नहीं लिखता। वह ‘पेशेवर’ नहीं होता। अपनी आन्तरिक प्रेरणा को तरजीह देता है।

‘तारों के गीत’ से लेकर ‘राग-संवेदन’ तक आपकी अठारह काव्य-कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं; आप क्या अनुभूत करते हैं? इन कृतियों के प्रकाशन-क्रम पर प्रकाश डालेंगे?
मेरी काव्य-कृतियों का प्रकाशन सन् १९४९ से प्रारम्भ हुआ। प्रकाशक अनायास मिलते रहे।
शुरू-शुरू में कुछ गीत-कविताएँ तारों को लक्ष्य करके लिखी थीं। तब मैं लगभग १५ वर्ष का था और ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में अध्ययनरत था। तारे संसार-भर के कवियों के आकर्षण के केन्द्र रहे हैं। मात्र तारों पर कविता-संकलन प्रकाशक को विशिष्ट लगा। इस कृति में कुल २१ रचनाएँ समाविष्ट हैं। प्रकाशक ने इसका पैपरबैक संस्करण बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया। ‘तारों के गीत’ की समीक्षा ‘साहित्य संदेश’ के सम्पादक यशस्वी प्रोफ़ेसर-लेखक सत्येन्द्र जी (आगरा) ने आकाशवाणी-केन्द्र दिल्ली से प्रसारित की; जिसे डा. विनयमोहन शर्मा जी ने अपनी सम्पादित आलोचना-पुस्तक ‘महेंद्रभटनागर का रचना-संसार’ में शामिल किया है। प्रारम्भिक रचनाएँ होते हुए भी; तारों के ये गीत, पुस्तकाकार प्रकाशित हो जाने के बाद भी; तत्कालीन स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित भी होते रहे (‘आजकल’ मासिक, दिल्ली, ‘नवयुग’ साप्ताहिक, दिल्ली, आदि में)। कुछ गीत एकाधिक अन्य भाषाओं (तेलुगु, अंग्रेज़ी आदि) में अनूदित व प्रकाशित भी हैं।
द्वितीय काव्य-कृति ‘टूटती शृंखलाएँ’ भी सन् १९४९ में प्रकाशित हो गयी (६० कविताएँ) इस कृति का प्रकाशन मेरे मित्र श्री. नंदकिशोर मित्तल (कारवाँ प्रकाशन, इंदौर) ने किया। ‘कारवाँ’ कार्यालय में प्राय: काव्य-गोष्ठियाँ होती थीं। डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ के साथ-साथ मैं भी उज्जैन से आमंत्रित होता था। उन दिनों ‘हंस’ आदि अनेक उच्च-स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं में मेरी कविताएँ प्रकाशित हो रही थीं। श्री. नंदकिशोर मित्तल साहित्यिक रुचि के व्यक्ति थे। उन्होंने स्वयं ‘टूटती शृंखलाएँ’ को प्रकाशित करना चाहा। लेकिन प्रूफ़ ध्यानपूर्वक नहीं देखे। कुछ कविताओं में अपनी ओर से किंचित परिवर्तन तक कर डाले — बिना मुझे बताए! अच्छा हुआ, ‘टूटती शृंखलाएँ’ का सही द्वितीय संस्करण सन् १९५० में ही आ गया (स्थानीय साहित्यिक संस्था ‘प्रबुद्ध भारती’, ग्वालियर द्वारा)। ‘टूटती शृंखलाएँ’ में प्रकाशित डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ का वक्तव्य इस प्रकार है — “मुझे श्री. महेंद्रभटनागर की ‘टूटती शृंखलाएँ’ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। युग की अस्तव्यस्त मानसिक दशा तथा अप्रतिहत संघर्ष की जागरूक वाणी के उन्मेषशील स्वर इसकी झंकार में समाहित हैं। महेंद्रभटनागर की आतुर निर्भीक व्यंजना तथा कलात्मक गढ़न, प्रगतिशील काव्य के स्वर्णिम भविष्य की ओर संकेत करती है। कवि में जन-संस्कृति के नव-निर्माण की जो अदम्य आस्था है वह उसके स्वर को और सबल तथा साधनापरक बनाती है। हिन्दी के वर्तमान कवियों में उसने सहज ही गौरवपूर्ण स्थान बना लिया है। युग की वाणी उसके कंठ में ढलकर जन-जीवन के अश्रु-हास की सजीव गाथा बन गयी है। ‘टूटती शृंखलाएँ’ संक्रमण-युग के युगान्तरकारी काव्य की भूमिका बनकर आयी है और नि:संदेह भावी समाज के अधिकांश भावात्मक उपकरण अंकुर रूप में उसमें देखे जा सकते हैं। मैं माँ-भारती के इस साधक की उर्वर प्रतिभा का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।’’
‘टूटती शृंखलाएँ’ बहु-चर्चित काव्य-कृति रही।
खजूरी बाज़ार, इंदौर में ‘दीनानाथ बुक डिपो’ लेखकों-कवियों का मिलन-स्थल था। मैं जब भी इंदौर जाता वहाँ कुछ समय ज़रूर व्यतीत करता। ‘दीनानाथ बुक डिपो’ के मालिक मुझसे बड़े प्रभावित थे। तीसरी काव्य-कृति ‘बदलता युग’ उन्होंने प्रकाशित की। सन्१९५३ में। ऐसा ही, चौथी काव्य-कृति ‘अभियान’ के साथ हुआ। ‘आदर्श विद्या मंदिर, इंदौर’ के संचालक ने सन्१९५४ में उसे प्रकाशित किया। पाँचवीं काव्य-कृति ‘अन्तराल’ साहित्यिक-संस्था ‘युवक साहित्यकार संघ, धार’ ने सन्१९५४ में ही निकाली। ‘स्वरूप ब्रदर्स, इंदौर’; जो मेरी दो-एक पुस्तकें प्रकाशित कर चुके थे; प्रौढ़-शिक्षान्तर्गत ‘विहान’ प्रकाशानार्थ ले गये। सन्१९५६ में छपी। सन्१९५६ में ही ‘श्रीअजन्ता प्रकाशन, पटना’ से बहु-चर्चित काव्य-कृति ‘नयी चेतना’ का प्रकाशन हुआ। प्रकाशक बिहार के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार थे। सन्१९५९ में ‘किताब घर / साहित्य प्रकाशन , ग्वालियर’ ने प्रेम-कविताओं की कृति ‘मधुरिमा’ का प्रकाशन किया। उन्होंने इसके दो संस्करण निकाले। नवीं काव्य-कृति ‘जिजीविषा’ श्रीकृष्णचंद्र बेरी जी ने ‘हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी’ से सन्१९६० में प्रकाशित की; जिसकी अधिकांश कविताएँ प्रगतिवादी-जनवादी काव्य-धारा में बहु-उद्धृत हैं। जिस प्रकाशक ने मेरी प्रथम काव्य-कृति ‘तारों के गीत’ छापी थी; उसी ने अपने एक अन्य प्रकाशन-संस्थान ‘कैलाश पुस्तक सदन, ग्वालियर’ से सन्१९६३ में, ‘संतरण’ कविता-संकलन प्रकाशित किया। सन्१९७२ में, जब मैं ‘शासकीय महाविद्यालय, मंदसौर’ में पदस्थ था, ‘लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद’ के मालिक मुझसे मिलने आए और ‘संवर्त’ नामक मेरा नया कविता-संकलन प्रकाशनार्थ ले गये और सन्१९७२ में ही उसे प्रकाशित कर दिया। तदुपरांत, बारहवाँ कविता-संकलन ‘संकल्प’ सन्१९७७ में साहित्यिक संस्था ‘प्रबुद्ध भारती’ (ग्वालियर) से निकला। ‘जूझते हुए’ सन्१९८४ में ‘किताब महल, इलाहाबाद’ ने प्रकाशित किया। सन्१९९० और १९९७ में क्रमश: ‘जीने के लिए’ और ‘आहत युग’ ग्वालियर के ‘सर्जना प्रतिष्ठान’ से प्रकाशित हुए। ‘अनुभूत-क्षण’ सीधे पहले ‘समग्र’ (३) में शामिल हुआ (सन्२००१)। फिर, द्वि-भाषिक (अंग्रेज़ी-हिन्दी) कृति के साथ सन् २००१ में ही, प्रस्तुत हुआ। द्वि-भाषिक (अंग्रेज़ी-हिन्दी) कृतियों के अन्तर्गत ही ‘मृत्यु-बोध : जीवन-बोध’ और ‘राग-संवेदन’ क्रमश: सन् २००२ और २००५ में प्रकाश में आए। इस प्रकार, इस समय तक मेरी अठारह काव्य-कृतियाँ उपलब्ध हैं। ‘समग्र’ खंड १, २, ३ में क्रम से १६ और ‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’ खंड १, २, ३ में सम्पूर्ण १८ काव्य-कृतियाँ समाविष्ट हैं। इतना लिख चुकने के बाद भी, बहुत-कुछ अभिव्यक्त करने की छटपटाहट है। मैं समाजार्थिक चेतना-सम्पन्न एक आस्थावान कवि ‘जीवन-त्रासदी का गायक’ समानान्तर मौज़ूद रहा; देखकर आज आश्चर्यचकित हूँ! यह-सब कैसे हो गया! जीवन में बहुत मानसिक कष्ट झेले, शायद, उनकी अनायास स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति। लिखकर हृदय का बोझ हलका करता रहा। व्यक्तिगत अनुभूतियाँ अंतर-मन का यथार्थ नहीं है क्या?

आपके काव्य का मूल-स्वर क्या है?
सामाजिक सरोकारों को मैंने प्राथमिकता दी है। रचनात्मक लेखन में मेरे प्रवेश के समय, देश और समाज का जो परिदृश्य था उसने मुझे समाजार्थिक चेतना प्रदान की। देश पराधीन था। भारतीय जनता, गांधी जी के नेतृत्व में, स्वतंत्रता-संघर्ष में आन्दोलन-रत थी। भारतीय समाज पुनरुत्थान की दिशा में सक्रिय था । जन-मानस में सुधारवादी प्रवृत्तियाँ पनप रही थीं। समस्त वातावरण आदर्श-प्रेरित था।
कवि केवल सामाजिक विषयों तक ही सीमित नहीं रहता। वह चिन्तक भी होता है। जीवन और जगत के सनातन प्रश्नों पर भी मनन करता है। व्यक्तिगत स्तर पर हर्ष और वेदना का भी अनुभव करता है। कवि का दार्शनिक उसकी रचनाओं में मुखर होता है। रचनाकार के हृदय में जितनी गहराई होगी; उतनी प्रभावान्विति से वह जीवन-मर्म का उद्घाटन कर सकेगा। उत्कृष्ट भावों-विचारों-कल्पनाओं से समृद्ध रचनाकार ही उत्कृष्ट रचना कर सकते हैं। मेरे काव्य में भी जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति हुई है। दर्द की अनुभूतियाँ जीवन-यथार्थ का हिस्सा हैं। वे ‘स्व’ से ‘सामूहिक’ बनती हैं। क्योंकि कवि कोई विशिष्ट अजूबा प्राणी नहीं होता। वह सामान्य जन का जीवन जीता है। उसके निजी हर्ष-विषाद सामान्य मानवता के सुख-दुख बन जाते हैं। इसे ही भाव-तादात्म्य कहते हैं। अत: मेरे काव्य में राग-विराग के स्वर भी सहज ध्वनित हुए हैं।
तीसरे प्रकार की रचनाएँ वे हैं; जो प्रणय-अनुभूतियों से सिक्त हैं। स्त्री-पुरुष का पारस्परिक आकर्षण व प्रेम स्वाभाविक एवं सनातन है। सृष्टि का अस्तित्व ही इसी से है। मनुष्य में परिष्कृति है; जो अन्य प्राणियों में दृग्गोचर नहीं होती। प्रेम मात्र शारीरिक क्षुधा या आवश्यकता नहीं है। उसका संबंध आत्मा से है। प्रेम में सर्वस्व न्यौछावर करने में हम नहीं हिचकते। प्रेम एक उदात्त व उदार जीवन-मूल्य है। जीवन-वास्तव है; कोरा काल्पनिक नहीं। माना नैतिक मूल्य सर्वकालिक-सर्वदेशीय नहीं होते। वे बदलते भी रहते हैं। लेकिन मनुष्य का पशु-धरातल पर उतर आना या उससे भे अधिक निकृष्ट बन जाना मानवता को स्वीकार्य नहीं। माना, पूर्व में ही नहीं, आज भी नैतिक गिरावट का बाज़ार गर्म है। शायद, वैज्ञानिक और प्राविधिक विकास के फलस्वरूप पूर्व से भी अधिक। प्रेम और वासना का द्वन्द्व कभी समाप्त होने वाला नहीं। पर, इस सारे माहौल को देख कर हार नहीं मानना है।
मेरे काव्य में जो प्रणय-स्वर हैं; वे ‘स्वकीया’ या किसी काल्पनिक के प्रति हैं। उनकी अभिव्यक्ति संतुलित है। उनके भाव स्वस्थ हैं। प्रणय, समाज अर्थात्सामाजिक समस्याओं के प्रति हमें विमुख नहीं करता। वह नितान्त ऐकान्तिक नहीं होता। ऐसा प्रणय-भाव तो सुरा-प्रेमियों के रचना-कर्म में बहुतायत से देखने को मिलता है — देश में; विदेश में। पत्नी या प्रेमिका बहुत बड़ी जीवन-शक्तिस होती है। वह मात्र विलासिनी नहीं।
चौथी प्रकार की कविताएँ प्रकृतिपरक हैं। मनुष्य स्वयं प्रकृति का एक हिस्सा है। माँ के गर्भ से बाहर आते ही; मनुष्य प्रकृति की गोद में पहुँच जाता है। प्रकाश, ताप, हवा, जल, ध्वनि, रंग आदि सबका परिज्ञान उसे होता है। प्रकृति उसे प्रभावित करती है। नाना वस्तुएँ वह देखता है। चाँद, तारे, उषा, वृक्ष, पौधे, घास, फूल, तितली, जुगुनू, वर्षा, आँधी-तूफ़ान, विद्युत, इंद्रधनुष, बीरबहूटी, नदी-नाले, पर्वत, पक्षी, जलचर आदि के साथ वह अपना जीवन जीता है। प्रकृति के मनोरम और भीषण — दोनों प्रकार के दृश्यों का प्रभाव उसके तन-मन पर पड़ता है। अत: कविता में प्रकृति का अवतरित होना स्वाभाविक है। प्रकृति-काव्य की भले ही कोई उपयोगिता न हो; किन्तु वह हमारी सौन्दर्य-दृष्टि का परिचायक होता है। यह सौन्दर्य-दृष्टि मात्र मनुष्य के पास है; तथा जिसका वह चित्रण करना भी जानता है। कितने भी समुन्नत कैमरे बन जाएँ; कवि द्वारा उरेहे गये चित्रों से उनकी तुलना नहीं हो सकती। कवि के प्रकृति-चित्रण में मात्र प्रकृति नहीं होती; रचनाकार की अपनी सौन्दर्य-दृष्टि और अनुभूतियाँ भी होती हैं। ईश्वर की तरह वह भी प्रकृति-स्रष्टा होता है— अक्षरों में; रंगों-रेखाओं में।

आपके काव्य का अब-तक जो मूल्यांकन हुआ है, उससे आप क्या संतुष्ट हैं?
आप जानते हैं, प्रारम्भ से ही, हम किसी साहित्यिक नेता की शरण में नहीं गये। जाते तो लोग जान ज़रूर जाते। इतने अनदेखे नहीं रहते। पर, हमने कभी किसी आधार को अपनाना नहीं चाहा। ख्याति के प्रति शुरू से ही लापरवाह रहे। कविता को कभी पेशा नहीं बनाया। जब चाहा; लिखा। साहित्य-जगत में पहचान भी कम रही। जीवन-भर यात्रा-भीरु बने रहे। मिलना-जुलना नहीं के बराबर रहा। मात्र पत्राचार द्वारा ही कुछ साहित्यिक मित्रों और पत्र-सम्पादकों से संबंध-सम्पर्क रहा। कवि-सम्मेलनों में भाग लेना; स्वभाव-विरुद्ध रहा। आकाशवाणी कवि-सम्मेलनों के आमंत्रण तक स्वीकार नहीं किये। आयोजकों को इससे आश्चर्य भी हुआ। पर, कारण कुछ नहीं — मात्र स्वभाव और यात्रा-कष्ट से बचने की भावना। साहित्य में कुछ स्थान बन जाने के बाद कई दिग्गजों से सम्पर्क हुआ। लेकिन उनकी प्रकाशन-योजनाओं में शामिल होने की कभी इच्छा नहीं हुई। यदि कहीं जुड़ जाते तो कुछ अधिक लोग जान जाते; औरों की तरह लेखों-बहसों आदि में नामोल्लेख भी होता रहता। दूसरे, हमें नामी प्रकाशक भी नहीं मिले। नामी प्रकाशक प्रचार के बड़े कारगर माध्यम सिद्ध होते हैं। ऐसा हमने अब महसूस किया। उनके प्रयत्नों से आपकी कृतियाँ देश-भर में फैल जाती हैं। आज तो विदेशों तक में। उनके बँधे हुए समीक्षक और पत्र-सम्पादक होते हैं; जो समय पर समीक्षा लेखन-प्रकाशन का कार्य सम्पादित करते हैं। जिनकी कृतियाँ ऐसे प्रकाशकों ने छापीं उनमें से अधिकांश रातों-रात प्रसिद्ध हो गये! मानता हूँ, उनके लेखन में सार भी रहा होगा। पर, यह भी सच है, यदि उनकी कृतियाँ साधारण कोटि के प्रकाशकों ने छापी होतीं तो उन्हें इतनी जल्दी इतनी ख्याति नहीं मिल पाती। अधिकांश आलोचक स्थापित नामों को दुहराने और अपने को उन-तक सीमित रखने में ही अपने लेखन-कर्म की इति-श्री समझते हैं। हिन्दी का प्राध्यापक-समाज तो आश्चर्यजनक रूप से अनपढ़ देखने में आता है।

जहाँ-तक मेरी काव्य-कृतियों के प्रकाशन का प्रश्न रहा मुझे कभी दिक़्कत नहीं आयी। आस-पास के प्रकाशक सहज ही मिलते रहे। उन्होंने अपने सीमित प्रभाव-क्षेत्र में कुछ कृतियों के दो-दो संस्करण निकाले। रॉयलटी भी दी। भले ही अल्प। सरकारी थोक ख़रीद भी उनके प्रयत्नों से हुई। पर, यह सब एक सीमित क्षेत्र में। देश-व्यापी नहीं। विज्ञापन और प्रचार की उन्होंने कोई आवश्यकता नहीं समझी। जो छापा; आसानी से बिक गया। नतीज़ा यह हुआ कि मेरी कृतियाँ दूर-दराज़ के क्षेत्रों में नहीं पहुँच सकीं। प्रमुख विक्रय-केन्द्रों पर भी उपलब्ध नहीं रहीं। परिणामत: लोगों का ध्यान कम गया। आज भी यही स्थिति है। ‘हिन्दी प्रचारक संस्थान’, वाराणसी (‘जिजीविषा’), ‘लोकभारती प्रकाशन’, इलाहाबाद (‘संवर्त’), ‘किताब महल’, इलाहाबाद (‘जूझते हुए’), आदि कुछेक नामी प्रकाशकों ने जो प्रकाशित किया; देश-भर के ग्रंथालयों में पहुँचा है।
जहाँ-तक मेरे काव्य-कर्तृत्व के मूल्यांकन का प्रश्न है; वह आश्चर्यजनक रूप से उपलब्ध है तथा उस पर विमर्श निरन्तर जारी है। लगभग दो-सौ, हिन्दी और अंग्रेज़ी के उच्च-स्तरीय लब्ध-प्रतिष्ठ आलोचकों, साहित्येतिहासकारों, रचनाकारों ने जमकर सविस्तर लिखा है और आज भी किसी-न-किसी योजनान्तर्गत कार्य हो रहा है। हिन्दी और अंग्रेज़ी में स्वतंत्र आलोचना-पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा अनेक सम्पादित आलोचना-कृतियाँ छ्पी हैं व तैयार की जा रही हैं। देश ने अनेक विश्वविद्यालयों में शोध हुआ है; हो रहा है ( हिन्दी और अंग्रेज़ी अध्ययन-पीठों में)। स्नातकोत्तर और एम.फ़िल. के शोध-प्रबन्ध जब-तब लिखे जाते रहे हैं। सात शोधार्थियों को मेरे साहित्य पर पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त हो चुकी है तथा इतने ही शोधरत हैं। अंग्रेज़ी में भी पी-एच. डी. उपाधि-हेतु श्री. रामचंद्रन कार्तिकेयन ‘मदुरई कामराज विश्वविद्यालय’(तमिळनाडु) में पंजीकृत हैं। पी-एच. डी. वाले तीन शोध-प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं अन्य प्रकाशनाधीन हैं। आधुनिक हिन्दी कविता पर — विशेष रूप से छायावादोत्तर कविता और प्रागतिवादी-जनवादी कविता पर — लिखे जाने वाले सैकड़ों शोध-प्रबन्धों में मेरे कर्तृत्व की चर्चा है; उसका महत्त्व-निर्धारण है। इस सबसे मैं संतुष्ट हूँ। कुछ आलोचकों ने मेरी कविता की स्वस्थ आलोचना की है; कुछ ने कठोर। दुर्भावना-मुक्त किसी भी प्रकार की कठोर आलोचना का स्वागत है। आलोचना में तटस्थता-निष्पक्षता तो रहनी ही चाहिए। लेकिन कुछ लोग जब दुर्भावनावश फ़तवे देने लगते हैं तो उनकी भ्रष्ट बुद्धि पर तरस आता है। हमारा काम तो रचना करना है; प्रशंसा और तिरस्कार से प्रभावित हुए बिना। जिस तरह मधुमक्खी का काम शहद-संचयन है। बस। हमारे रचना-कर्म में बाधा डालने का अधिकार किसी को नहीं है।

आपकी काव्य-कृतियों के अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हैं। इतना यश बिरले कवियों को प्राप्त है। इसका राज़ क्या है?
मेरी कविताओं के विदेशी भाषाओं में अनुवाद होंगे; ऐसा कभी सोचा-तक न था। एक दिन अचानक प्राहा विश्वविद्यालय (चेकोस्लोवेकिया) के हिन्दी-प्रोफ़ेसर और हिन्दी-कवि डा. ओडोलन स्मेकल (बाद में, भारत में चेक-राजदूत) का पत्र मिला कि वे मेरी कविताओं के चेक भाषा में अनुवाद करना चाहते हैं। उन्होंने मेरी अनेक कविताओं के चेक में अनुवाद किये। कुछ चेक-पत्रिका ‘Novy Orient’ में छ्पे। इसके एकाधिक अंक आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। एक कविता का अनुवाद (‘काटो धान’) चेक-रेडियो से प्रसारित भी हुआ। (द्रष्टव्य डा. स्मेकल का पत्र : ‘समग्र’ खंड ६)। हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक (साइक्लोस्टाइल्ड) में भी मेरी कविता का अंश सम्मिलित किया गया।
तदुपरांत अंग्रेज़ी में काव्यानुवादों का क्रम शुरू हुआ; जो अविच्छिन्न रूप से चल रहा है। अंग्रेज़ी में ग्यारह कविता-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। अंग्रेज़ी-अनुवाद-प्रारूपों को अंतिम रूप मैंने ही प्रदान किया है। अनेक कविताओं के अंग्रेज़ी-अनुवाद स्वयं मैने किये हैं। सर्व-प्रथम ये अंग्रेज़ी-अनुवाद, ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’, बनारस के अंग्रेज़ी-प्रोफ़ेसर डा. रामअवध द्विवेदी ने, ‘नागरी प्रचारिणी सभा, काशी’ से अपने सम्पादन में प्रकाशित होने वाली अंग्रेज़ी-पत्रिका ‘हिन्दी रिव्यू’ में प्रकाशित किये। इधर, भारत में प्रकाशित होने वाली अधिकांश अंग्रेज़ी-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। Indian English Poetry में उनका उल्लेख किया जाता है। मेरे अंग्रेज़ी काव्य-कर्तृत्व पर अंग्रेज़ी में तीन आलोचना-पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। विश्वविद्यालयों में, अंग्रेज़ी में भी, शोध-कार्य प्रगति पर है। इंटरनेट पर अंग्रेज़ी की अनेक वेबसाइट्स पर मेरी ये कविताएँ देखी-पढ़ी जा सकती हैं। पृथक से उनके ब्लॉग भी हैं।
अंग्रेज़ी के बाद, १०८ कविताओं के फ्रेंच-अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित हुए — 'A Modern Indian Poet : Dr. Mahendra Bhatnagar : UN POÈTE INDIEN ET MODERNE'. अनुवाद ‘बर्दवान विश्वविद्यालय’ (पश्चिमी बंगाल) की फ्रेंच-प्रोफ़ेसर श्रीमती पूर्णिमा राय ने किये। ये फ्रेंच-काव्यानुवाद भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।
जापान से प्रकाशित होने वाली द्वि-भाषिक (जापानी और फ्रेंच में) पत्रिका ‘Gendaishi Kenkyu’ में सम्पादक Mr. Seiji Hino मेरी कविताएँ भी जापानी-अनुवाद के साथ प्रकाशित करते रहे हैं।
नेपाली में भी इक्के–दुक्के अनुवाद हुए हैं। ‘भाषा’ में प्रकाशित हैं। उर्दू-अनुवादों की पुस्तक ‘एक बेहतर दुनिया के लिए’ प्रकाशनाधीन है। अनुवादक — श्री. ईशाक ‘तबीब’ (बदाऊँ / उ.प्र.) सिंधी में अनुवाद श्री. बलवाणी ने किये हैं। ‘भाषा’ में प्रकाशित हैं।
अधिकांश भारतीय भाषाओं में काव्यानुवाद प्रकाशित हैं। यथा — बाँग्ला, ओड़िया, तमिळ, तेलुगु, कन्नड़, मळयालम, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि में। बाँग्ला, कन्नड़, मराठी, तमिळ में पुस्तकाकार भी निकले हैं। ‘मृत्यु-बोध : जीवन-बोध’ कृति का बाँग्ला और कन्नड़ में अनुवाद क्रमश: श्रीमती पूर्णिमा राय (बर्दवान : प. बंगाल) और श्रीमती बी. टी. शशिकला (मैसूर) ने किया है। तमिळ में दो संकलन प्रकाशित हैं — (१) ‘Kaalan Maarum’. (अनुवादक Essarci) (२) ‘Mahendra Bhatnagar Kavithaigal’. (अनुवादक श्री. K. R. जमदग्नि & Dr. P. Jairaman)। तेलुगु में एक संकलन प्रकाशित है — ‘Deepanni Veliginchu’. (अनुवादिका श्रीमती पारनन्दी निर्मला)। मराठी में अधिकांश अनुवाद शान्तिनिकेतन के मराठी-प्रोफ़ेसर डा. न. चि. जोगळेकर जी ने किये हैं; जो पुस्तकाकार प्रकाशित हैं — ‘संकल्प आणि अन्य कविता’। कवयित्री श्रीमती मृणालिनी घुले (ग्वालियर) और कवयित्री डा. प्रतिभा मुदलियार (मैसूर विश्वविद्यालय) द्वारा किये गये अनुवाद भी प्रकाशित होते रहे हैं। भारतीय भाषाओं में किये गये काव्यानुवाद, इन भाषाओं की पत्रिकाओं के अतिरिक्त, ‘केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय’ की द्वि-मासिक पत्रिका ‘भाषा’ में निरन्तर प्रकाशित हो रहे हैं।
काव्यानुवाद बड़ा कठिन और श्रमसाध्य कर्म है। अनुवादक एक प्रकार से अनुगायक होता है। अन्त:प्रेरणा ही अनुवादक को अनुवाद करने के लिए प्रेरित करती है। कविताएँ जब अनुवादक को अपील करती हैं तभी वह उनका अनुवाद करने में प्रवृत्त होता है।

चौरासी-वर्षीय महेंद्रभटनागर की जीवन-दृष्टि क्या है?
जीवन जैसा जी सके; जीया। जीना है तो प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। जीवन में अनुकूल कम; प्रतिकूल अधिक रहता है। राज्य, समाज, परिवार से सदैव द्वन्द्व की स्थिति बनी रहती है। सहायक कम; बाधक अधिक। इसीलिए स्वावलम्बन को महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य माना गया है। हर व्यक्ति को अपने दम-ख़म पर ही जीना है। माना जीवन में बहुत-कुछ आकस्मिक घटित होता है; किन्तु स्व-विवेक से जीवन को सुनियोजित बनाने की चेष्टा भी मनुष्य करता ही है। हमारे संस्कार, हमारी शिक्षा-दीक्षा, हमारी आस्थाएँ, हमारे विचारणाएँ, हमारे अनुभव जीवन-भविष्य को बनाने- सँवारने का उपक्रम करते हैं — भले ही, हम इच्छानुकूल जी न सकें। बस, इसी कश-म-कश का नाम जीवन है। कोई असामयिक; तो कोई दीर्घायु में महाप्रस्थान करता ही है।
आज ८४ वर्ष की उम्र में, जब सिंहावलोकन करता हूँ तो अतीत के मधुर और तिक्त द्रश्य चलचित्र के समान, बंद आँखों के सामने से गुज़रने लगते हैं। अफ़सोस, ऐसे अग्रज जिन्होंने चाहा, सहयोग किया आज जीवित नहीं हैं। अधिकांश आत्मीय समवयस्क भी साथ छोड़ गये। यहाँ तक कि अनेक प्रिय अनुज भी साथ नहीं रहे। अत: एकाकीपन की अनुभूति होना स्वाभाविक है। मुझे ‘महेंद्र’ नाम से अब कौन पुकारे! एक अपरिचित नाम ‘भटनागर जी’ सुनायी देता है। मेरा नाम ‘महेंद्रभटनागर’ या ‘महेंद्र’ है; ‘भटनागर जी’ नहीं। ‘भटनागर जी’ से तात्पर्य क्या? कार्यस्थों में ‘भटनागर’ होते हैं — माथुर, श्रीवास्तव, सक्सेना आदि की तरह। इनसे किसी की पहचान नहीं बनती। एकाकीपन महसूस न हो; इसलिए नयी पीढ़ी से जुड़ना अच्छा लगता है। वृद्धावस्था में बालक बनने की भावना जाग्रत होती है। किन्तु नयी पीढ़ी और बाल-वृंद में आपके प्रति कोई दिलचस्पी नहीं होती — सम्मान-भाव भले ही हो। हर कोई अपने विकास में व्यस्त है; जो स्वाभाविक है। आपका बोझ ढोने के लिए किसी को फ़ुर्सत नहीं। यदि यह दृष्टि आपके पास है तो वृद्धावस्था में एकाकीपन को भी संतोष और हर्षोल्लास के साथ जीया जा सकता है।
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Dr. Mahendra Bhatnagar,
110 BalwantNagar, Gandhi Road, GWALIOR — 474 002 [M.P.]
E-mail : drmahendra02@gmail.com
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Dr. Aditya Prachandia,
Prof. Hindi, Dayalbaag Educational Institute (Deemed University),
DAYALBAAG, AGRA (U.P.)

Wednesday, April 7, 2010

PROGRESSIVE POET MAHENDRA BHATNAGAR

प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर



प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर
— डा.शिवकुमार मिश्र, वल्लभविद्यानगर [गुजरात]


महेंद्रभटनागर की कविताएँ एक ऐसे कवि के रचना-कर्म की फलश्रुति हैं; अपने अब-तक के आयुष्य के छह दशकों तक अपने समय से सीधे आँखें मिलाते हुए जिसने उसके एक-एक तेवर को पहचाना और शब्दों में बाँधा है। इन कविताओं में समय के बहुरूपी तेवर ही नहीं, पूरे समय के पट पर, कभी साफ़-सुथरी; परन्तु ज़्यादातर पेचीदा और गड्डमड्ड लिखी हुई उस इबारत का भी खुलासा है जिसे बड़ी शिद्दत से कवि ने पढ़ा-समझा और उसके पूरे आशयों के साथ हम सबके लिए मुहैया किया है।
छह दशकों की सृजन-यात्रा कम नहीं होती। महेन्द्र भटनागर के कवि-मन की सिफ़त इस बात में है कि लाभ-लोभ, पद-प्रतिष्ठा के सारे प्रलोभनों से अलग, अपनी विश्व-दृष्टि और अपने विचार के प्रति पूरी निष्ठा के साथ, अपनी चादर को बेदाग रखते हुए वे नई सदी की दहलीज़ तक अपने स्वप्न और अपने संकल्पों के साथ आ सके हैं।
एक लम्बे रचना-काल का साक्ष्य देती इन कविताओं में सामाजिक यथार्थ की बहु-आयामी और मनोभूमि और मनोभावनाओं की बहुरंगी प्रस्तुति है। इनमें युवा-मन की ऊर्जा, उमंग, उल्लास और ताज़गी है तो उसका अवसाद, असमंजस और बेचैनी भी। ललकार, चेतावनी, उद्बोधन और आह्नान है तो वयस्क मन के पके अनुभव तथा उन अनुभवों की आँच से तपी-निखरी सोच भी है। कहीं स्वरों में उद्घोष है तो कहीं वे संयमित हैं। समय की विरूपता, क्रूरता और विद्रूपता का कथन है तो इस सबके खिलाफ़ उठे प्रतिरोध के सशक्त स्वर भी। समय के दबाव हैं तो उनका तिरस्कार करते हुए मुखर होने वाली आस्था भी। परन्तु इन कविताओं में मूलवर्ती रूप में सारे दुख-दाह और ताप-त्रास के बीच जीवन के प्रति असीम राग की ही अभिव्यक्ति है। आदमी के भविष्य के प्रति अप्रतिहत आस्था की कविताएँ हैं ये, और इस आस्था का स्रोत है कवि का इतिहास-बोध और उससे उपजा उसका ‘विज़न’। कवि के उद्बोधनों में, आदमी के जीवन को नरक बनाने वाली शक्तियों के प्रति उसकी ललकार में एवं आदमी के उज्ज्वल भविष्य के प्रति उसकी निष्कम्प आस्था में उसके इस ‘विज़न’ को देखा जा सकता है।
कविता के नये-नये आन्दोलन उनकी निगाहों के सामने गुज़रते रहे हैं; परन्तु प्रगतिशील आन्दोलन के उदय के साथ उनकी रचना-धर्मिता ने जिस जीवन-धर्मी और जन-धर्मी लय से अपना नाता जोड़ा, उम्र के आठवें दशक में पहुँचे हुए कवि की कविता में वह जीवन-धर्मी और जन-धर्मी लय अपनी पूरी ऊर्जा में जीवित है। फ़र्क इतना ही है कि उम्र के आख़िरी पड़ाव में पहुँचकर कवि ने बाहर की दुनिया के साथ-साथ अपने भीतर की दुनिया में भी झाँका है — किये-धरे, जिये-भोगे का लेखा-जोखा लिया है, जो स्वाभाविक है। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचे हुए आदमी में जिस तरह कभी-कभार एक दार्शनिक भी बोला करता है, महेंद्रभटनागर के कवि-मन में इस दार्शनिक की पैठ और उसके कहे हुए की अनुगूँज भी कुछ कविताओं में है। महेंद्रभटनागर की कविताएँ वस्तुतः एक परिपक्व रचना-धर्मिता की उपज हैं। वे एक ऐसे रचनाकार से हमें रू-ब-रू करती हैं, जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों से जो गुज़र चुका है, बाहर की दुनिया के साथ अपने भीतर की दुनिया को काफ़ी-कुछ थाह-परख चुका है — और अब प्रकृतिस्थ होकर — अनुभवों की जो राशि इस क्रम में उसे मिली है — तथा जो कुछ अपने जिये-भोगे के अलावा अपने देखे-सुने और पढ़े से उसने अर्जित किया है, उसे सबको बाँट देना चाहता है कि लोग उसके बरक्स अपने बाहर-भीतर को जाँचें-परखें। ज़िन्दगी के लम्बे सफ़र में जो कुछ उसे सुखद और प्रीतिकर लगा है, उसे ज़रूर पूरी शिद्दत से समेटते और बचाते हुए, अपनी स्मृतियों में सँजोए वह बार-बार जीना और पाना चाहता है। अप्रीतिकर तथा क्लेशदायक के प्रति भी उसमें आवेग या उद्वेग नहीं है, कारण वह सब भी उसके अनुभवों का हिस्सा है। परन्तु उसे बाहर की दुनिया में वितरित कर उसके भार से ज़रूर वह मुक्त होना चाहता है। उसकी जन-पक्षधरता का, उसकी जन-धर्मी चेतना का दायित्व भी है कि वह समय के उन दंशों की पीड़ा को, समय की उन विरूपताओं और विद्रूपताओं को, आदमियत के तेज़ी से हो रहे क्षरण और उससे उपजी सम्भावित विपदाओं को सामने लाये ताकि उसकी तरह बाक़ी लोग भी उस समय को जानें-पहचानें, जो उनका समय है, और उनके बरक्स उसमें अपनी और अपने हस्तक्षेप की दिशाएँ तय करें। संकलन की कुछ कविताओं में उद्बोधन के ऐसे स्वर हैं, जो ज़रूरी भी थे।
महेंद्रभटनागर की कविता की, शुरूआती दौर से ही, यह विशेषता रही है कि कविताओं में भोगे और अर्जित किये हुए अनुभव-संवेदनों को ही उन्होंने तरज़ीह दी है। किताबी, आयातित या उधार लिया हुआ, उसमें लगभग कुछ भी नहीं है, न रहा है। इसी नाते उनकी अभिव्यक्ति विश्वसनीय भी है और सहज तथा प्रकृत भी। प्रगतिशील आन्दोलन के शुरूआती दौर में जो उफ़ान और आवेग, जो लाउडनेस (Loudness) कविता में थी, उनकी कविता में उसकी अनुगूँजें नहीं आयीं। न तो वे पहले लाउड (Loud) थे और न ही आज हैं। रचनाधर्मी प्रयोग भी उसमें नहीं हैं। वह सीधी और सहज कविता है, फिर भी सपाट और सतही नहीं। चूँकि वह अनुभव-प्रसूत है अतएव उसमें शिल्प के बजाय बात बोली है — सारगर्भित बात, जिसे किसी भंगिमा की दरकार नहीं, जो अपने कथ्य और उससे जुड़ी संवेदना के बल पर पढ़ने वाले के दिल-दिमाग़ में उतर जाती है। उसकी विशेषता उसकी प्रशांति तथा प्रांजलता है।
महेंद्रभटनागर की इन कविताओं की एक अन्य विशेषता यह भी है कि अपनी जन-धर्मिता, जीवन-धर्मिता तथा बदले और लगातार बदल रहे समय के प्रति जागरूकता बनाए रहते हुए भी वह चैहद्दियों में बँधी नहीं रही। उससे आगे-कुछ ऐसे विषयों की ओर भी वह गयी है जो कविता के सनातन विषय रहे हैं — मसलन प्रेम और प्रकृति, जीवन और मृत्यु आदि।
इस तरह देखा जाय तो महेंद्रभटनागर प्रगतिशील कवियों की उस पंक्ति के कवि हैं जिनकी रचना-धर्मिता ने प्रगतिशील कविता के फलक को व्यापक बनाया है। बावज़ूद इसके, इन विषयों पर पूर्ववत्र्ती कवियों की मानसिकता के तहत न लिखकर महेंद्रभटनागर के कवि ने उन पर उस मनोभूमि में लिखा है, जिस मनोभूमि में ये विषय केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन या नागार्जुन जैसे प्रगतिशील कवियों द्वारा उजागर हुए हैं। महेंद्रभटनागर की प्रकृति-कविताएँ केदार अग्रवाल की कविताओं का स्मरण कराती हैं तो ‘स्वकीया’ के आलम्बन वाली प्रेम-कविताओं में हमें नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार एक साथ दिखायी देते हैं। ये कविताएँ उपर्युक्त कवियों की अनुकृति नहीं, समानता है तो मनोभूमि की।
आज के समय में आदमियत के क्षरण पर, राजनीति की विद्रूपताओं पर, सामाजिक जीवन की विकृतियों और विडम्बनाओं पर भी कवि ने लिखा है। बावज़ूद इसके आदमी के उज्ज्वल भविष्य पर उसे भरोसा है। वह निराश और हताश इस नाते नहीं है कि उसके पास वह इतिहास-दृष्टि है, जो उसे बताती है कि आदमी ज़िन्दा है और ज़िन्दा रहेगा — हर आपदा-विपदा के बावज़ूद, क्योंकि उसके पास उसके श्रम की शक्ति है, और श्रमजीवी कभी नहीं मरा करता। महेन्द्र भटनागर के कवि-कर्म से कविता की प्रगतिशील धारा समृद्ध हुई है, ऐसा विश्वास के साथ कहा जा सकता है। कुल मिलाकर, महेंद्रभटनागर की कविता धरती और जीवन के प्रति अकुंठ राग की कविता है। वह मानव-जिजीविषा की कविता है, जो मरना नहीं जानती।

— डा. शिवकुमार मिश्र, वल्लभ-विद्यानगर (गुजरात)



कविताएँ

1 कला-साधना / 2
2 कविता-प्रार्थना / 3
3 प्रतीक्षक / 4
4 दो ध्रुव / 5
5 दृष्टि / 6
6 परिवर्तन / 6
7 सुखद / 7
8 अनुभव-सिद्ध / 8
9 अदम्य / 9
10 सार्थकता / 10
11 अमानुषि / 11
12 इतिहास का एक पृष्ठ / 12
13 अग्नि-परीक्षा / 14
14 विचित्र / 16
15 संक्रमण / 17
16 सहभाव / 18
17 अब नहीं / 18
18 वर्तमान / 19
19 परिणति / 20
20 नवोन्मेष / 20
21 अंधकार / 21
?2 आलोक / 22
23 दीप जलता है! / 23
24 आज की ज़िन्दगी / 24
25 मध्य-वर्ग - 1 / 25
26 मध्य-वर्ग - 2 / 25
27 भविष्यत् / 26
28 लेखनी से — / 27
29 निश्चय / 28
30 बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे! / 29
31 काटो धान / 31
32 मुख को छिपाती रही / 33
33 अजेय / 34
34 पहली बार / 35
35 ज़िन्दगी कैसे बदलती है! / 37
36 नयी नारी / 38
37 मशाल / 40
38 ग्रीष्म / 41
39 नारी / 42
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कला-साधना

हर हृदय में
स्नेह की दो बूँद ढल जाएँ
कला की साधना है इसलिए !

गीत गाओ
मोम में पाषाण बदलेगा,
तप्त मरुथल में
तरल रस ज्वार मचलेगा !
गीत गाओ
शांत झंझावात होगा,
रात का साया
सुनहरा प्रात होगा !

गीत गाओ
मृत्यु की सुनसान घाटी में
नया जीवन-विहंगम चहचहाएगा !
मूक रोदन भी चकित हो
ज्योत्स्ना-सा मुसकराएगा !

हर हृदय में
जगमगाए दीप
महके मधु-सुरिभ चंदन
कला की अर्चना है इसलिए !
गीत गाओ
स्वर्ग से सुंदर धरा होगी,
दूर मानव से जरा होगी,
देव होगा नर,
व नारी अप्सरा होगी !

गीत गाओ
त्रास्त जीवन में
सरस मधुमास आ जाए,
डाल पर, हर फूल पर
उल्लास छा जाए !
पुतलियों को
स्वप्न की सौगात आए !
गीत गाओ
विश्व-व्यापी तार पर झंकार कर !
प्रत्येक मानस डोल जाए
प्यार के अनमोल स्वर पर !

हर मनुज में
बोध हो सौन्दर्य का जाग्रत
कला की कामना है इसलिए
===================================
कविता-प्रार्थना

आदमी को
आदमी से जोड़ने वाली,
क्रूर हिंसक भावनाओं की
उमड़ती आँधियों को
मोड़ने वाली,
उनके प्रखर
अंधे वेग को — आवेग को
बढ़
तोड़ने वाली
सबल कविता µ
ऋचा है, / इबादत है !

उसके स्वर
मुक्त गूँजें आसमानों में,
उसके अर्थ ध्वनित हों
सहज निश्छल
मधुर रागों भरे
अन्तर-उफ़ानों में !

आदमी को
आदमी से प्यार हो,
सारा विश्व ही
उसका निजी परिवार हो !

हमारी यह
बहुमूल्य वैचारिक विरासत है !
महत्
इस मानसिकता से
रची कविता —
ऋचा है, इबादत है !
===============================
प्रतीक्षक

अभावों का मरुस्थल
लहलहा जाये,
नये भावों भरा जीवन
पुनः पाये,
प्रबल आवेगवाही
गीत गाने दो !

गहरे अँधेरे के शिखर
ढहते चले जाएँ,
उजाले की पताकाएँ
धरा के वक्ष पर
सर्वत्रा लहराएँ,
सजल संवेदना का दीप
हर उर में जलाने दो !
गीत गाने दो !

अनेकों संकटों से युक्त राहें
मुक्त होंगी,
हर तरफ़ से
वृत्त टूटेगा
कँटीले तार का
विद्युत भरे प्रतिरोधकों का,
प्राण-हर विस्तार का !

उत्कीर्ण ऊर्जस्वान
मानस-भूमि पर
विश्वास के अंकुर
जमाने दो !
गीत गाने दो !
==============================
दो ध्रुव

स्पष्ट विभाजित है
जन-समुदाय —
समर्थ / असहाय।
हैं एक ओर —
भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविधा-साधन-सम्पन्न
प्रसन्न।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब!
बँगले हैं / चकले हैं,
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत,
हैरत है, हैरत!

दूसरी तरफ़ —
जन हैं
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त ... त्रास्त,
अनपढ़,
दलित असंगठित,
खेतों - गाँवों / बाजा़रों - नगरों में
श्रमरत,
शोषित / वंचित / शंकित!
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दृष्टि

जीवन के कठिन संघर्ष में
हारो हुओ!
हर क़दम
दुर्भाग्य के मारो हुओ!
असहाय बन
रोओ नहीं,
गहरा अँधेरा है,
चेतना खोओ नहीं!

पराजय को
विजय की सूचिका समझो,
अँधेरे को
सूरज के उदय की भूमिका समझो!

विश्वास का यह बाँध
फूटे नहीं!
नये युग का सपन यह
टूटे नहीं!
भावना की डोर यह
छूटे नहीं!
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परिवर्तन

मौसम कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!

सपना — जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!

समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा, छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!

साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम कितना बदल गया!
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सुखद

सहधर्मी / सहकर्मी
खोज निकाले हैं
दूर - दूर से
आस - पास से
और जुड़ गया है
अंग - अंग
सहज
किन्तु / रहस्यपूर्ण ढंग से
अटूट तारों से,
चारों छोरों से
पक्के डोरों से!

अब कहाँ अकेला हूँ ?
कितना विस्तृत हो गया अचानक
परिवार आज मेरा यह!
जाते - जाते
कैसे बरस पड़ा झर - झर
विशुद्ध प्यार घनेरा यह!

नहलाता आत्मा को
गहरे - गहरे!
लहराता मन का
रिक्त सरोवर
ओर - छोर
भरे - भरे!
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अनुभव-सिद्ध

तय है कि काली रात गुज़रेगी,
भयावह रात गुज़रेगी !
असफल रहेगा
हर घात का आघात,
पराजित रात गुज़रेगी !
यक़ीनन हम
मुक्त होंगे त्रासदायी स्याह घेरे से,
रू-ब-रू होंगे
स्वर्णिम सबेरे से,
अरुणिम सबेरे से !
तय है —
अँधेरे पर उजाले की विजय तय है !
पक्षी चहचहाएंगे,
मानव प्रभाती गान गाएंगे !
उतरेंगी गगन से सूर्य-किरणें
नृत्य की लय पर,
धवल मुसकान भर - भर !
तय है कि
संघातक कठिन दुःसह अँधेरी रात गुज़रेगी !
कुचक्रों से घिरा आकाश बिफरेगा,
आहत ज़िन्दगी इंसान की
सँवरेगी !
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अदम्य

दूर-दूर तक छाया सघन कुहरµ
कुहरे को भेद
डगर पर बढ़ते हैं हम !

चट्टानों ने जब-जब पथ अवरुद्ध किये —
चट्टानों को तोड़ नयी राहें गढ़ते हैं हम !

ठंडी तेज़ हवाओं के वर्तुल झोंके आते हैंµ
तीव्र चक्रवातों के सम्मुख सीना ताने
पग-पग अड़ते हैं हम !

सागर-तट पर टकराता भीषण ज्वारों का पर्वत —
उमड़ी लहरों पर चढ़ पूरी ताक़त से लड़ते हैं हम !

दरियाओं की बाढ़ें तोड़ किनारे बहती हैं —
जल भँवरों / आवेगों को थाम;
सुरक्षा-यान चलाते हैं हम !

काली अंधी रात क़यामत की
धरती पर घिरती है जब-जब —
आकाशों को जगमग करते
आशाओं के / विश्वासों के,
सूर्य उगाते हैं हम !
मणि-दीप जलाते हैं हम

ज्वालामुखियों ने जब-जब
उगली आग भयावह —
फैले लावे पर
घर अपना बेख़ौफ़ बनाते हैं हम !

भूकम्पों ने जब-जब
नगरों गाँवों को नष्ट किया —
पत्थर के ढेरों पर
बस्तियाँ नयी हर बार बसाते हैं हम !

परमाणु-बमों / उद्जन-शस्त्रों की
मारों से
आहत भू-भागों पर
देखो कैसे
जीवन का परचम फहराते हैं हम !
चारों ओर नयी अँकुराई हरियाली
लहराते हैं हम !

कैसे तोड़ोगे इनके सिर ?
कैसे फोड़ोगे इनके सिर ?
दुर्दम हैं,
इनमें अद्भुत ख़म है !
काल-पटल पर अंकित है —
‘जीवन-अपराजित है !’
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सार्थकता

आओ
दीवारों के घेरों / परकोटों से
बाहर निकलें !
अपने सुख-चिन्तन से ऊपर उठ कर
जग-क्रन्दन को स्वर-सरगम में बदलें !

मुरझाये रोते चेहरों को मुसकानें बाँटें,
उनके जीवन-पथ पर छितराया कुहरा छाँटें !
रँग दें घनघोर अँधेरे को
जगमग तीव्र उजालों से,
त्रासों और अभावों की निर्मम मारों से,
हारों को, लाचारों को
ढक दें, लद-लद पीले-लाल गुलाबों की
जयमालों से !
घर-घर जाकर सहमे-सहमे बच्चों को
प्यारी-प्यारी मोहक किलकारी दें,
कँकरीली और कँटीली परती पर
रंग-बिरंगी लहराती फुलवारी दें !
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अमानुषिक

आज फिर खंडित हुआ विश्वास,
आज फिर धूमिल हुई
अभिनव ज़िन्दगी की आस !
ढह गये साकार होती कल्पनाओं के महल !
बह गये अतितीव्र अतिक्रामक उफ़नते ज्वार में,
युग-युग सहेजे
भव्य-जीवन-धारणाओं के अचल !
आज छाये फिर प्रलय-घन,
सूर्यµ संस्कृति-सभ्यता का
फिर ग्रहण-आहत हुआ,
षड्यंत्रों-घिरा यह देश मेरा
आज फिर मर्माहत हुआ !
फैली गंध नगर-नगर
विषैली प्राणहर बारूद की,
विस्फोटकों से पट गयी धरती,
सुरक्षा-दुर्ग टूटे
और हर प्राचीर क्षत-विक्षत हुई !
जन्मा जातिगत विद्वेष,
फैला धर्मगत विद्वेष,
भूँका प्रांत-भाषा द्वेष,
गँदला हो गया परिवेश !
सर्वत्रा दानव वेश !
घुट रही साँसें, प्रदूषित वायु,
विष-घुला जल, छटपटाती आयु !
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इतिहास का एक पृष्ठ

सच है, घिर गये हैं हम
चारों ओर से / हर क़दम पर
नर-भक्षियों के चक्रव्यूहों में,
भौंचक-से खड़े हैं
लाशों-हड्डियों के ढूहों में !
सच है, फँस गये हैं हम
चारों ओर से / हर क़दम पर
नर-भक्षियों के दूर तक
फैलाए-बिछाए जाल में,
छल-छद्म की उनकी घिनौनी चाल में !

बारूदी सुरंगों से जकड़ कर
कर दिया निष्क्रिय हमारे लौह-पैरों को
हमारी शक्तिशाली दृढ़ भुजाओं को !
भर दिया घातक विषैली गंध से,
दुर्गन्ध से
चारों दिशाओं की हवाओं को !

सच है , उनके क्रूर पंजों ने
है दबा रखा गला,
भींच डाले हैं
हर अन्याय को करते उजागर
दहकते रक्तिम अधर !
मस्तिष्क की नस-नस
विवश है फूट पड़ने को,
ठिठक कर रह गये हैं हम !
खंडित पराक्रम
अस्तित्व / सत्ता का अहम् !

सच है कि
आक्रामक-प्रहारक सबल हाथों की
जैसे छीन ली क्षमता त्वराµ
अब न हम ललकार पाते हैं
न चीख पाते हैं,
स्वर अवरुद्ध मानवता-विजय-विश्वास का,
सूर्यास्त जैसे गति-प्रगति की आस का !
अब न मेधा में हमारी
क्रांतिकारी धारणाओं-भावनाओं की
कड़कती तीव्र विद्युत कौंधती है,
चेतना जैसे
हो गयी है सुन्न जड़वत् !
चेष्टाहीन हैं / मजबूर हैं,
हैरान हैं, भारी थकन से चूर हैं !

लेकिन नहीं अब और स्थिर रह सकेगा
आदमी का आदमी के प्रति
हिंसा-क्रूरता का दौर !
दृढ़ संकल्प करते हैं
कठिन संघर्ष करने के लिए,
इस स्थिति से उबरने के लिए!
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अग्नि-परीक्षा

काली भयानक रात,
चारों ओर झंझावात,
पर, जलता रहेगा — दीप...
मणिदीप सद्भाव का / सहभाव का !
उगती जवानी देश की होगी नहीं गुमराह !
उजले देश की जाग्रत जवानी
लक्ष्य युग का भूल होगी नहीं गुमराह
तनिक तबाह !

मिटाना है उसे —
जो कर रहा हिंसा,
मिटाना है उसे —
जो धर्म के उन्माद में फैला रहा नफ़रत,
लगाकर घात गोली दाग़ता है
राहगीरों पर / बेक़सूरों पर !
मिटाना है उसे —
जिसने बनायी;
धधकती बारूद-घर दरगाह !
इन गंदे इरादों से
नये युग की जवानी
तनिक भी होगी नहीं गुमराह !

चाहे रात काली और हो,
चाहे और भीषण हों
चक्रवात-प्रहार,
पर, सद्भाव का: सहभाव का
ध्रुव-दीप / मणि-दीप
निष्कम्प रह जलता रहेगा !
साधु जीवन की
सतत साधक जवानी / आधुनिक,
होगी नहीं गुमराह !

भले ही वज्रवाही बदलियाँ छाएँ,
भले ही वेगवाही आँधियाँ आएँ,
सद्भावना का दीप
सम्यक् धारणा का दीप
संशय-रहित हो
अविराम / यथावत्
जलता रहेगा !
एक पल को भी न टूटेगा
प्रकाश-प्रवाह !
विचलित हो,
नहीं होगी जवानी देश की गुमराह !
उभरीं विनाशक शक्तियाँ जब-जब,
मनुजता ने दबा कुचला उन्हें तब-तब !
अमर —
विजय विश्वास !
इतिहास
चश्मदीद गवाह !
जलती जवानी देश की होगी नहीं गुमराह !

एकता को तोड़ने की साज़िशें
नाकाम होंगी,
हम रहेंगे एक राष्ट्र अखंड
शक्ति प्रचंड !
सहन हरगिज़ नहीं होगा
देश के प्रति छल-कपट
विश्वासघात गुनाह !
मेरे देश की विज्ञान-आलोकित जवानी
अंध-कूपों में कभी होगी नहीं गुमराह !
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विचित्र

यह कितना अजीब है !
आज़ादी के तीन-तीन दशक
बीत जाने के बाद भी
पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत जाने के बाद भी
मेरे देश का आम आदमी ग़रीब है !
बेहद ग़रीब है !
यह कितना अजीब है !
सर्वत्रा धन का, पद का, पशु का
साम्राज्य है,
यह कैसा स्वराज्य है ?

धन, पद, पशु
भारत-भाग्य-विधाता हैं,
चारों दिशाओं में उन्हीं का जय-जयकार,
उन्हीं का अहंकार
व्याप्त है, परिव्याप्त है,
और सब-कुछ समाप्त है !
शासन अंधा है, बहरा है,
जन-जन का संकट गहरा है !
(खोटा नसीब है !)
लगता है — परिवर्तन दूर नहीं,
क़रीब है !
किन्तु आज यह सब
कितना अजीब है !
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संक्रमण

यह नहीं होगा —
बंदूक की नोक
सचाई को दबाये रखे,
आदमी को आततायी के
पैरों पर झुकाये रखे,
यह नहीं होगा !

पशुता की गुलामी
अनेकों शताब्दियाँ
ढो चुकी हैं,
लेकिन अब
ऐसा नहीं होगा !

यातनाओं की
किरचें भोथरी हो चुकी हैं,
क्या तुम नहीं देखते —
क्रूर जल्लादों की
वहशी योजनाओं की
बुनियादें हिल रही हैं ?
मौत की
काल-कोठरी बने
हर देश को
ज़िन्दगी की
हवा और रोशनी
मिल रही है !
घिनौनी साज़िशों का
पर्दा उठ गया है,
सारा माहौल ही
अब तो नया है !
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सद्भाव

आओ,
दूरियाँ देशान्तरों की, व्यक्तियों की
अत्यधिक सामीप्य में बदलें।
बहुत मज़बूत अन्तर-सेतु
बाँधें !

आओ,
अ-जनबीपन हृदय का
अनुभूतियों का
सांत्वना आश्वास में बदलें।
परस्पर मित्राता का गगन-चुम्बी केतु
बाँधें !

आओ,
अविद्या-अज्ञता धर्मान्तरों की
भिन्नता विश्वास की
समधीत सम्यक् बोध में बदलें।
सुनिश्चित विश्व-मानव-हेतु
साधें !
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अब नहीं

अब सम्भव नहीं
बीते युगों की नीतियों पर एक पग चलना,
निरावृत आज
शोषक-तंत्र की प्रत्येक छलना।

अब नहीं सम्भव तनिक
बीते युगों की मान्यताओं पर
सतत गतिशील
मानव-चेतना को रुद्ध कर बढ़ना।

सकल गत विधि-विधानों की
प्रकट निस्सारता,
किंचित नहीं सम्भव मिटाना अब
बदलते लोक-जीवन की नयी गढ़ना।

शिखर नूतन उभरता है मनुज सम्मान का,
हर पक्ष नव आलोक में डूबा निखरता है
दमित प्रति प्राण का,
नव रूप
प्रियकर मूर्ति में ढल कर सँवरता है
सबल चट्टान का।
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वर्तमान

युग —
अराजकता-अरक्षा का,
सतत विद्वेष-स्वर-अभिव्यक्ति का,
कटु यातनाओं से भरा,
अमंगल भावनाओं से डरा !
धूमिल
गरजते चक्रवातों ग्रस्त !
प्रतिक्षण अभावों-संकटों से त्रास्त !
युग —
निर्दय विघातों का,

असह विष दुष्ट बातों का !
अभोगी वेदना का,
लुप्त मानव-चेतना का !

घोर अनदेखे अँधेरे का !
अ-जनबी / शोर,
रक्तिम क्रूर जन-घातक सबेरे का !
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परिणति

आजन्म
अपमानित-तिरस्कृत
ज़िन्दगी
पथ से बहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?

आजन्म
आशा-हत
सतत संशय-भँवर उलझी
पराजित ज़िन्दगी
अविरत लहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?

आजन्म
वंचित रह
अभावों-ही-अभावों में
घिसटती ज़िन्दगी
औचट दहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?
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नवोन्मेष

खण्डित पराजित
ज़िन्दगी ओ ! सिर उठाओ,
आ गया हूँ मैं
तुम्हारी जय सदृश
सार्थक सहज विश्वास का हिमवान !

अनास्था से भरी
नैराश्य-तम खोयी
थकी हत-भाग सूनी
ज़िन्दगी ओ ! सिर उठाओ,
और देखो
द्वार दस्तक दे रहा हूँ मैं
तुम्हारे भाग्य-बल का
जगमगाता सूर्य तेजोवान !

ज़िन्दगी
इस तरह टूटेगी नहीं !
ज़िन्दगी
इस तरह बिखरेगी नहीं !
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अंधकार

शीत युद्ध से समस्त विश्व त्रास्त
हो रहा मनुष्य भय विमोह ग्रस्त !

डगमगा रही निरीह नीति-नाव
जल अथाह, नष्ट पाल-बंधु-भाव !

राष्ट्र द्वेष की भरे अशेष दाह
मित्राता प्रसार की निबद्ध राह !

मच रही अजीब अंध शस्त्र-होड़
पशु बना मनुज विचार-शक्ति छोड़ !

जन-विनाश चक्र चल रहा दुरंत
आज साधु-सभ्यता विहान अंत !

गूँजते चतुर्दिशा कठोर बोल
रम्य-शांति-राग का रहा न मोल !

एकता-सितार तार छिन्न-भिन्न !
हर दिशा उदास मूक खिन्न-खिन्न !

अस्त सूर्य, प्राण वेदना अपार
अंधकार, अंधकार, अधंकार !
======================================

आलोक

मनुष्य का भविष्य —
अंधकार से, शीत-युद्ध-भय प्रसार से
मुक्त हो,मुक्त हो !
रश्मियाँ विमल विवेक की विकीर्ण हों,
शक्तियाँ विकास की विरोधिनी विदीर्ण हों !
वर्ग-वर्ण भेद से,
आदमी-ही-आदमी की क़ैद से
मुक्त हो, मुक्त हो !
चक्रवात, धूल, वज्रपात से
नवीन मानसी क्षितिज
घिरे नहीं, घिरे नहीं !
नये समाज का शिखर
गिरे नहीं, गिरे नहीं !
पुनीत दिव्य साधना,
विश्व-शांति कामना,
उषा समान भूमि को सिँगार दे,
त्रास्त जग उबार दे
प्यार से दुलार दे!
नवीन भावना-पराग
आग में झुलसµ
जले नहीं, जले नहीं !
अनेक अस्त्रा-शस्त्रा बल प्रहार से,
विषाक्त दानवी घृणा प्रचार से,
वर्तमान सभ्यता
मुक्त हो, मुक्त हो !
=======================================

दीप जलता है

दीप जलता है !
सरल शुभ मानवी संवेदना का स्नेह भरकर
हर हृदय में दीप जलता है !
युग-चेतना का ज्वार
जीवन-सिंधु में उन्मद मचलता है !
दीप जलता है !

तिमिर-साम्राज्य के
आतंक से निर्भय
अटल अवहेलना-सा दीप जलता है !

जगमगाता लोक नव आलोक से,
मुक्त धरती को करेंगे
अब दमन भय शोक से !

लुप्त होगा सृष्टि बिखरा तम
हृदय की हीनता का;
क्योंकि घर-घर
व्यक्ति की स्वाधीनता का
दीप जलता है !

बदलने को धरा
नव-चक्र चलता है !
नहीं अब भावना को
गत युगों का धर्म छलता है !
सकल जड़ रूढ़ियों की
शृंखलाएँ तोड़
नव, सार्थक सबल विश्वास का
ध्रुव-दीप जलता है !
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आज की ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हँसती हुई मुरझा गयी ;
चाँद पर बदली गहन आ छा गयी !

यामिनी का रूप सारा हर लिया
कामिनी को हाय विधवा कर दिया !

आदमी की सब बहारें छीन लीं,
उपवनों की फूल-कलियाँ बीन लीं !

फट गया मन लहलहाते खेत का,
बेरहम तूफ़ान आया रेत का !

उर-विदारक दीखता है हर सपन,
सब तरफ़ से चाहनाओं का दमन !

रीति बदलीं आधुनिक संसार की,
राह सारी मुड़ गयी हैं प्यार की !

सामने बस स्वार्थ का जंगल घना
दुर्ग जिसमें डाकुओं का है बना !

मौत की शहनाइयाँ बजती जहाँ,
रंग-बिरंगी अर्थियाँ सजती जहाँ !

लेटने को हम वहाँ मजबूर हैं,
वेदना से अंग सारे चूर हैं !

इस तरह लँगड़ी हुई है ज़िन्दगी
लड़खड़ाकर गिर रही लकवा लगी !
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मध्य-वर्ग (चित्र 1)

मेघों से घिरा आकाश है !
चहुँ ओर छाया,
बंद आँखों के सदृश,
गहरा अँधेरा,
घोंसलों में मूक चिड़ियाँ
ले रहीं सुख से बसेरा,
और हर अट्टालिका में
बज रहा मनहर पियानो, तानपूरा !

पर, टपकती छत तले
सद्यः प्रसव से एक माता आह भरती है !
मगर यह ज़िन्दगी इंसान की
मरती नहीं,
रह-रह उभरती है !
========================================

मध्य-वर्ग (चित्र 2)

दस बज रहे हैं रात के —
काफ़ी दूर पर
कुछ बेसुरे-से ढोल बजते हैं
किसी बारात के !

अति-तार स्वर से
गा रहा है रेडियो सीलोन
बासी गीत फ़िल्मी
‘आन’ के ‘बरसात’ के !
पास के घर में
थकी-सी अर्द्ध-निद्रित
तीस वर्षीया कुमारी
करवटें लेती किसी की याद में !
क्लर्क है उसका पिता
और वह उलझा हुआ है
फ़ाइलों के ढेर में !
(ज़िन्दगी के फेर में !)
सोचता है —
रात काफ़ी हो गयी,
अब शेष देखा जायगा जी बाद में !
झँपने लगीं पलकें
बडे़ बेफ़िक्र बचपन की सहेजी याद में !
==========================================

भविष्यत्

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
अपार अंधकार है, प्रगाढ़ अंधकार है !
न चाँद है, न सूर्य,
बज रहा न सावधान-तूर्य !

मृत्यु के कगार पर
खड़ी मनुष्यता सभीत,
बार-बार लड़खड़ा रही !
कि उद्जनों व अणुबमों-प्रयोग से
कराह काँपती मही !
तबाह द्वीप हो रहे,
बड़े-बड़े नगर तमाम
देखते सदैव स्वप्न में ‘हिरोशिमा’ !
गगन विराट वक्ष पर
विकीर्ण लालिमा,
धुआँ, धुआँ, धुआँ !

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
प्रकाश चाहिए,
प्रकाश का प्रवाह चाहिए !
हरेक भुरभुरे कगार पर
सशक्त बाँध चाहिए !
अटल खड़ा रहे मनुष्य,
आँधियों के सामने
अड़ा रहे मनुष्य
शक्तिवान, वीर्यवान, धैर्यवान !

ज़िन्दगी तबाह हो नहीं,
कराह और आह हो नहीं !
हँसी, सफ़ेद दूधिया हँसी
हरेक आदमी के पास हो !
सुखी भविष्य की नवीन आस हो !
============================================

लेखनी से —

लेखनी मेरी !
समय-पट पर चलो ऐसी कि जिससे
त्रास्त जर्जर विश्व का
फिर से नया निर्माण हो !
क्षत, अस्थि-पंजर, पस्त-हिम्मत
मनुज की सूखी शिराओं में
रुधिर-उत्साह का संचार हो !

ओ लेखनी मेरी, चलो !
साये हुए हैं जो
उन्हें उगते दिवाकर की ख़बर दो !
और पथ में जो रुके
उनको नयी ज्योतित डगर दो !
काफ़िला जो
रेत के नीचे दबा बेचैन है
उसे सतत आकाश-आरोहणमयी
नव-शक्ति दो !

भयभीत जो
उसको सबल विश्वास दो !
रोते हुए मुख पर रुपहला हास दो !

ओ लेखनी मेरी ! चलो,
जिससे कि दकियानूस-दुनिया के
सभी दृढ़ लौह बंधन टूट जाएँ,
और संस्कृति-सभ्यता की मूर्तियाँ सब
आततायी के विषैले क्रूर चंगुल से
सदा को छूट जाएँ !

ध्वंस पर
अभिनव-सृजन-आह्नान दो,
हर आदमी के कंठ में
श्रम का सबल मधु गान दो !
प्रत्येक उर में प्यार का सागर भरो,
धुँधले नयन में रोशनी घर-घर भरो
====================================

निश्चय

एक दिन निश्चय
तुम्हारे हर घिनौने और ज़हरीले
इरादों की समस्त जड़ें
अवनि को फोड़ उखड़ेंगी।
एक दिन निश्चय
तुम्हारी बेरहम नंगी कि ख़ूनी
वासनाओं की सड़ी धारा
धरा की धमनियों को छोड़कर
आकाश-पथ पर सूख जाएगी !
तुम्हारे स्वप्न के
सारे गगन-चुंबी महल
अभिनव प्रखर स्वर्णिम सुबह तक
पत्थरों के ढेर में
निश्चय, बदल कर
भूमि पर सोते मिलेंगे !

आज जन-जन के हृदय में आग है,
मुँह से निकलती बात भी बेलाग है !
संघर्ष से हर आदमी को
हो गयी बेहद मुहब्बत,
ज़िंदगी की पड़ गयी आदत
हमेशा राह पर चलना !
निरंतर सूर्य-सा जलना !
मनुष्यों की अथक ऐसी
निडर, दृढ़ फौज़ उगती जा रही,
जिसके क़दम पड़ते
धरा सज्जा बदलती जा रही !
=========================================

बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !

कुछ लोग
चाहे ज़ोर से कितना
बजाएँ युद्ध का डंका
पर, हम कभी भी
शांति का झंडा
ज़रा झुकने नहीं देंगे !
हम कभी भी
शांति की आवाज़ को
दबने नहीं देंगे !

क्योंकि हम
इतिहास के आरम्भ से
इंसानियत में,
शांति में
विश्वास रखते हैं,
गौैतम और गांधी को
हृदय के पास रखते हैं !
किसी को भी सताना
पाप सचमुच में समझते हैं,
नहीं हम व्यर्थ में पथ में
किसी से जा उलझते हैं !

हमारे पास केवल
विश्व-मैत्री का,
परस्पर प्यार का संदेश है,
हमारा स्नेह —
पीड़ित ध्वस्त दुनिया के लिए
अवशेष है !

हमारे हाथ -
गिरतों को उठाएंगे,
हज़ारों
मूक, बंदी, त्रस्त, नत,
भयभीत, घायल औरतों को
दानवों के क्रूर पंजों से बचाएंगे !

हमें नादान बच्चों की हँसी
लगती बड़ी प्यारी;
हमें लगती
किसानों के
गड़रियों के
गलों से गीत की कड़ियाँ मनोहारी !

खुशी के गीत गाते इन गलों में
हम
कराहों और आहों को
कभी जाने नहीं देंगे !
हँसी पर ख़ून के छींटे
कभी पड़ने नहीं देंगे !
नये इंसान के मासूम सपनों पर
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !
==============================================

काटो धान

काटो धान, काटो धान, काटो धान !

सारे खेत
देखो दूर तक कितने भरे,
कितने भरे / पूरे भरे !
घिर लहलहाते हैं
न फूले रे समाते हैं !
हवा में मिल
कुसुम-से खिल !

उठो, आओ,
चलो, इन जीर्ण कुटियों से
बुलाता है तुम्हें, साथी खुला मैदान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

जब हिम-नदी का चू पड़ा था जल
अनेकों धार में चंचल,
हिमालय से बहायी जो गयी थी धूल
उसमें आज खिलते रे श्रमिक !
तेरे पसीने से सिँचे
प्रति पेड़ की हर डाल में
सित, लाल, पीले, फूल !
जीन के लिए देती तुम्हें
ओ ! आज भू माता सहज वरदान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

आकाश में जब घिर गये थे
मॉनसूनी घन सघन काले,
हृदय सूखे हुए
तब आश-रस से भर गये थे
झूम मतवाले !

किसी
सुन्दर, सलोनी, स्वस्थ, कोमल, मधु
किशोरी के नयन
कुछ मूक भाषा में
नयी आभा सजाए जगमगाए श्वेत-कजरारे !
हुए साकार
भावों से भरे
अभिनव सरल जीवन लिए,
नूतन जगत के गान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

जो सृष्टि के निर्माण हित बोए
तुम्हारी साधना ने बीज थे
वे पल्लवित !
सपने पलक की छाँह में
पा चाह
शीतल ज्योत्स्ना की गोद में खेले !
(अरी इन डालियों को बाँह में ले ले !)

उठो !
कन्या-कुमारी से अखिल कैलाश के वासी
सुनो, गूँजी नयी झंकार !
हर्षित हो उठो !
परिवार सारे गाँव के
देखो कि चित्रित हो रहे अरमान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

टूटे दाँत ,
सूखे केश,
मुख पर झुर्रियों की वह सहज मुसकान,
प्रमुदित मुग्ध
फैला विश्व में सौरभ
महकता नभ,
सजग हो आज
मेर देश का अभिमान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !
================================================

मुख को छिपाती रही

धुआँ ही धुआँ है,
नगर आज सारा नहाता हुआ है !

अँगीठी जली हैं
व चूल्हे जले हैं,
विहग
बाल-बच्चों से मिलने चले हैं !
निकट खाँसती है
छिपी एक नारी
मृदुल भव्य लगती कभी थी,
बनी थी
किसी की विमल प्राण प्यारी !

उसी की शक़ल अब
धुएँ में सराबोर है !
और मुख की ललाई
अँधेरी-अँधेरी निगाहों में खोयी !

जिसे ज़िन्दगी से
न कोई शिकायत रही अब,
व जिसके लिए
है न दुनिया
भरी स्वप्न मधु से
लजाती हुयी नत !

अनेकों बरस से
धुएँ में नहाती रही है !
कि गंगा व यमुना-सा
आँसू का दरिया
बहाती रही है !
फटे जीर्ण दामन में
मुख को छिपाती रही है !

मगर अब चमकता है
पूरब से आशा का सूरज,
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही
दुख की शिकन !
========================================
अजेय

मुझको मिली कब हार है !

तुम रोकते हो क्यों मुझे ?
तुम टोकते हो क्यों मुझे ?
धधका निराशा का अनल
तुम झोंकते हो क्यों मुझे ?
हैं अमर मेरे प्राण, मेरा अमर हर उद्गार है !

रुकना मुझे भाता नहीं,
थकना मुझे आता नहीं,
सह लक्ष-लक्ष प्रहार भी
झुकना मुझे आता नहीं,
प्रत्येक क्षण गतिवान जीवन, शक्ति का संसार है !

मैं बढ़ रहा तूफ़ान में,
ले क्रांति-ज्वाला प्राण में,
वरदान मुझको मिल रहा
प्रतिपद अभय बलिदान में,
नौका भँवर में हो फँसी, साहस अथक पतवार है !
=============================================

पहली बार

विश्व के इतिहास में
जनता सबल बन
आज पहली बार जागी है,
कि पहली बार बाग़ी है !

पुरानी लीक से हटकर
बड़ी मज़बूत चट्टानी रुकावट का
प्रबलतम धार से कर सामना डट कर,
विरल निर्जन कँटीली भूमि पथरीली
विलग कर, पार कर
जन-धार उतरी
मानवी जीवन धरातल पर
सहज अनुभूति अंतस-प्रेरणा बल पर !

कि पहली बार छायी हैं
लताएँ रंग-बिरँगी ये
कि जिनकी डालियों पर
देश की संकीर्ण रेखाएँ
सभी तो आज धुँधली हैं !
क्योंकि
अंतर में सभी के
एक से ही दर्द की
व्याकुल दहकती लाल चिनगारी
नवीना सृष्टि रचने की प्रलयकारी !

क़दम की एकता यह आज पहली है,
तभी तो हर विरोधी चोट सह ली है !

गुज़र गये हैं
हहरते क्रुद्ध भीषण अग्नि के तूफ़ान
जिनका था नहीं अनुमान
सभी के स्वत्व के संघर्ष में युग-व्यस्त
भावी वर्ष-सम साधक
भुवन प्रत्येक जन-अधिकार का रक्षक !
केलीफ़ोर्निया की मृत्यु-घाटी से,
कलाहारी, सहारा, हब्स, टण्ड्रा से
मिटी अज्ञान की गहरी निशा,
ज्योतित नये आलोक से रे हर दिशा !
निर्माण हित उन्मुख जगत जनता

विविध रूपा
विविध समुदाय
बैठा अब नहीं निरुपाय
उसको मिल गया
सुख-स्वर्ग का नव मंत्र
मुक्त स्वतंत्रा !

उसका विश्व सारा आज अपना है,
नहीं उसके लिए कोई पराया, दूर सपना है !
युगान्तर पूर्व युग-जीवन विसर्जन
दृढ़ अटल विश्वास के सम्मुख सभी
अन्याय पोषित भावनाओं का
हुआ अविलम्ब निर्वासन !

बुझते दीप फिर से आज जलते हैं,
कि युग के स्नेह को पाकर
लहर कर मुक्त बलते हैं !
सघन जीवन-निशा विद्युत लिये
मानो अँधेरे में बटोही जा रहा हो टॉर्च ले
जब-जब करें डगमग चरण
तब-तब करे जगमग
उभरता लोक-जीवन मग !

कल्मष नष्ट,
पथ से भ्रष्ट!

दूर कर आतंक,
नहीं हो नृप न कोई रंक !

अभी तक जो रहे युग-युग उपेक्षित
वे सँभल कर सुन रहे
विद्रोह की ललकार !
पहली बार है संसार का इतना बड़ा विस्तार,
कि पहली बार इतनी आज कुर्बानी अपार !
========================================

ज़िन्दगी कैसे बदलती है !

यह झोपड़ी है फूस की,
जिसकी पुरानी भग्न दीवारें,
व आधी छत खुली!

इस रात में
जो है बड़ी ठंडी,
खड़ी है मौन, तम से ग्रस्त !

उसमें ले रहे हैं साँस
कोई तीन प्राणी,
हार जिनने
आज तक किंचित न मानी !
भूमि पर लेटे हुए,
गुदड़ी समेटे और गट्ठर से बने
निज ज्वाल-जीवन से हरारत पा
कुहर के बादलों में गर्म साँसें खींचते हैं !
और उसका शक्तिशाली उर
दबाकर भेदते हैं !

भग्न यदि दीवार है
पर, भग्न आशा है नहीं !
विश्वास धूमिल
और दृढ़ आवाज़ बंदी है नहीं !
कल देख लेना
ज़िन्दगी कैसे बदलती है !
=======================================

नयी नारी

तुम नहीं कोई
पुरुष की ज़र-ख़रीदी चीज़ हो,
तुम नहीं
आत्मा-विहीना सेविका
मस्तिष्क हीना-सेविका,
गुड़िया हृदयहीना !

नहीं हो तुम
वहीं युग-युग पुरानी
पैर की जूती किसी की,
आदमी के
कुछ मनोरंजन-समय की वस्तु केवल !
तुम नहीं कमज़ोर,
तुमको चाहिए ना सेज फूलों की !
नहीं मझधार में तुम
अब खड़ी शोभा बढ़ातीं
दूर कूलों की !

अब दबोगी तुम नहीं
अन्याय की सम्मुख,
नयी ताक़त, बड़ा साहस
ज़माने का तुम्हारे साथ है !
अब मुक्त कड़ियों से
तुम्हारे हाथ हैं !
तुम हो न सामाजिक न वैयक्तिक
किसी भी क़ैदखाने में विवश,
अब रह न पाएगा
तुम्हारे देह-मन पर
आदमी का वश
कि जैसे वह तुम्हें रक्खे, रहो,
मुख से न अपने भूल कर भी
कुछ कहो !
जग के करोड़ों आज युवकों की तरफ़ से
कह रहा हूँ मैं —
‘तुम्हारा ‘प्रभु’ नहीं हूँ,
हाँ, सखा हूँ !
और तुमको
सिर्फ़ अपने
प्यार के सुकुमार-बंधन में
हमेशा बाँध रखना चाहता हूँ !
=========================================

मशाल

बिखर गये हैं ज़िन्दगी के तार-तार !
रुद्ध-द्वार, बद्ध हैं चरण,
खुल नहीं रहे नयन ;
क्योंकि कर रहा है व्यंग्य
बार-बार देखकर गगन !
भंग राग-लय सभी
बुझ रही है ज़िन्दगी की आग भी !
आ रहा है दौड़ता हुआ

अपार अंधकार !
आज तो बरस रहा है विश्व में
धुआँ, धुआँ !
शक्ति लौह के समान ले
प्रहार सह सकेगा जो
जी सकेगा वह !
समाज वह —
एकता की शृंखला में बद्ध,
स्नेह-प्यार-भाव से हरा-भरा
लड़ सकेगा आँधियों से जूझ !

नवीन ज्योति की मशाल
आज तो गली-गली में जल रही,
अंधकार छिन्न हो रहा,
अधीर-त्रास्त विश्व को उबारने
अभ्रांत गूँजता अमोघ स्वर,
सरोष उठ रहा है बिम्ब-सा
मनुष्य का सशक्त सर !
=======================================


ग्रीष्म

तपता अम्बर, तपती धरती,
तपता रे जगती का कण-कण !

त्रास्त विरल सूखे खेतों पर
बरस रही है ज्वाला भारी,
चक्रवात, लू गरम-गरम से
झुलस रही है क्यारी-क्यारी,
चमक रहा सविता के फैले
प्रकाश से व्योम-अवनि-आँगन !

जर्जर कुटियों से दूर कहीं
सूखी घास लिए नर-नारी,
तपती देह लिए जाते हैं,
जिनकी दुनिया न कभी हारी,
जग-पोषक स्वेद बहाता है,
थकित चरण ले, बहते लोचन !

भवनों में बंद किवाड़ किये,
बिजली के पंखों के नीचे,
शीतल ख़स के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे,
वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन !

रोग-ग्रस्त, भूखे, अधनंगे
दमित, तिरस्कृत शिशु दुर्बल,
रुग्ण दुखी गृहिणी जिसका क्षय
होता जाता यौवन अविरल,
तप्त दुपहरी में ढोते हैं
मिट्टी की डलियाँ, फटे चरण !
================================================

नारी

चिर-वंचित, दीन, दुखी बंदिनि! तुम कूद पड़ीं समरांगण में,
भर कर सौगन्ध जवानी की उतरीं जग-व्यापी क्रन्दन में,
युग के तम में दृष्टि तुम्हारी चमकी जलते अंगारों-सी,
काँपा विश्व, जगा नवयुग, हृत-पीड़ित जन-जन के जीवन में !

अब तक केवल बाल बिखेरे कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसू भरकर काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर-स्पर्शित पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम निकली हो बनकर अभिशापिन!

बलिदानों की आहुति से तुम भीषण हड़कम्प मचा दोगी,
संघर्ष तुम्हारा न रुकेगा त्रिभुवन को आज हिला दोगी,
देना होगा मूल्य तुम्हारा पिछले जीवन का ऋण भारी,
वरना यह महल नये युग का मिट्टी में आज मिला दोगी !

समता का, आज़ादी का नव-इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम तो आग लगाने को आयीं,
है साथी जग का नव-यौवन, बदलो सब प्राचीन व्यवस्था,
वर्ग-भेद के बंधन सारे तुम आज मिटाने को आयीं !
==================================================================================================
** DR. MAHENDRA BHATNAGAR
110, BALWANTNAGAR, GANDHI ROAD, GWALIOR — 474 002 [M.P.] INDIA
Phone : 0751-4092908 / Mobile : 8109730048













Saturday, March 13, 2010

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POEMS : Dr. Mahendra BHatnagar

Saturday, February 20, 2010

प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर

प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर



प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर
— डा.शिवकुमार मिश्र, वल्लभविद्यानगर [गुजरात]


महेंद्रभटनागर की कविताएँ एक ऐसे कवि के रचना-कर्म की फलश्रुति हैं; अपने अब-तक के आयुष्य के छह दशकों तक अपने समय से सीधे आँखें मिलाते हुए जिसने उसके एक-एक तेवर को पहचाना और शब्दों में बाँधा है। इन कविताओं में समय के बहुरूपी तेवर ही नहीं, पूरे समय के पट पर, कभी साफ़-सुथरी; परन्तु ज़्यादातर पेचीदा और गड्डमड्ड लिखी हुई उस इबारत का भी खुलासा है जिसे बड़ी शिद्दत से कवि ने पढ़ा-समझा और उसके पूरे आशयों के साथ हम सबके लिए मुहैया किया है।
छह दशकों की सृजन-यात्रा कम नहीं होती। महेन्द्र भटनागर के कवि-मन की सिफ़त इस बात में है कि लाभ-लोभ, पद-प्रतिष्ठा के सारे प्रलोभनों से अलग, अपनी विश्व-दृष्टि और अपने विचार के प्रति पूरी निष्ठा के साथ, अपनी चादर को बेदाग रखते हुए वे नई सदी की दहलीज़ तक अपने स्वप्न और अपने संकल्पों के साथ आ सके हैं।
एक लम्बे रचना-काल का साक्ष्य देती इन कविताओं में सामाजिक यथार्थ की बहु-आयामी और मनोभूमि और मनोभावनाओं की बहुरंगी प्रस्तुति है। इनमें युवा-मन की ऊर्जा, उमंग, उल्लास और ताज़गी है तो उसका अवसाद, असमंजस और बेचैनी भी। ललकार, चेतावनी, उद्बोधन और आह्नान है तो वयस्क मन के पके अनुभव तथा उन अनुभवों की आँच से तपी-निखरी सोच भी है। कहीं स्वरों में उद्घोष है तो कहीं वे संयमित हैं। समय की विरूपता, क्रूरता और विद्रूपता का कथन है तो इस सबके खिलाफ़ उठे प्रतिरोध के सशक्त स्वर भी। समय के दबाव हैं तो उनका तिरस्कार करते हुए मुखर होने वाली आस्था भी। परन्तु इन कविताओं में मूलवर्ती रूप में सारे दुख-दाह और ताप-त्रास के बीच जीवन के प्रति असीम राग की ही अभिव्यक्ति है। आदमी के भविष्य के प्रति अप्रतिहत आस्था की कविताएँ हैं ये, और इस आस्था का स्रोत है कवि का इतिहास-बोध और उससे उपजा उसका ‘विज़न’। कवि के उद्बोधनों में, आदमी के जीवन को नरक बनाने वाली शक्तियों के प्रति उसकी ललकार में एवं आदमी के उज्ज्वल भविष्य के प्रति उसकी निष्कम्प आस्था में उसके इस ‘विज़न’ को देखा जा सकता है।
कविता के नये-नये आन्दोलन उनकी निगाहों के सामने गुज़रते रहे हैं; परन्तु प्रगतिशील आन्दोलन के उदय के साथ उनकी रचना-धर्मिता ने जिस जीवन-धर्मी और जन-धर्मी लय से अपना नाता जोड़ा, उम्र के आठवें दशक में पहुँचे हुए कवि की कविता में वह जीवन-धर्मी और जन-धर्मी लय अपनी पूरी ऊर्जा में जीवित है। फ़र्क इतना ही है कि उम्र के आख़िरी पड़ाव में पहुँचकर कवि ने बाहर की दुनिया के साथ-साथ अपने भीतर की दुनिया में भी झाँका है — किये-धरे, जिये-भोगे का लेखा-जोखा लिया है, जो स्वाभाविक है। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचे हुए आदमी में जिस तरह कभी-कभार एक दार्शनिक भी बोला करता है, महेंद्रभटनागर के कवि-मन में इस दार्शनिक की पैठ और उसके कहे हुए की अनुगूँज भी कुछ कविताओं में है। महेंद्रभटनागर की कविताएँ वस्तुतः एक परिपक्व रचना-धर्मिता की उपज हैं। वे एक ऐसे रचनाकार से हमें रू-ब-रू करती हैं, जीवन के तमाम उतार-चढ़ावों से जो गुज़र चुका है, बाहर की दुनिया के साथ अपने भीतर की दुनिया को काफ़ी-कुछ थाह-परख चुका है — और अब प्रकृतिस्थ होकर — अनुभवों की जो राशि इस क्रम में उसे मिली है — तथा जो कुछ अपने जिये-भोगे के अलावा अपने देखे-सुने और पढ़े से उसने अर्जित किया है, उसे सबको बाँट देना चाहता है कि लोग उसके बरक्स अपने बाहर-भीतर को जाँचें-परखें। ज़िन्दगी के लम्बे सफ़र में जो कुछ उसे सुखद और प्रीतिकर लगा है, उसे ज़रूर पूरी शिद्दत से समेटते और बचाते हुए, अपनी स्मृतियों में सँजोए वह बार-बार जीना और पाना चाहता है। अप्रीतिकर तथा क्लेशदायक के प्रति भी उसमें आवेग या उद्वेग नहीं है, कारण वह सब भी उसके अनुभवों का हिस्सा है। परन्तु उसे बाहर की दुनिया में वितरित कर उसके भार से ज़रूर वह मुक्त होना चाहता है। उसकी जन-पक्षधरता का, उसकी जन-धर्मी चेतना का दायित्व भी है कि वह समय के उन दंशों की पीड़ा को, समय की उन विरूपताओं और विद्रूपताओं को, आदमियत के तेज़ी से हो रहे क्षरण और उससे उपजी सम्भावित विपदाओं को सामने लाये ताकि उसकी तरह बाक़ी लोग भी उस समय को जानें-पहचानें, जो उनका समय है, और उनके बरक्स उसमें अपनी और अपने हस्तक्षेप की दिशाएँ तय करें। संकलन की कुछ कविताओं में उद्बोधन के ऐसे स्वर हैं, जो ज़रूरी भी थे।
महेंद्रभटनागर की कविता की, शुरूआती दौर से ही, यह विशेषता रही है कि कविताओं में भोगे और अर्जित किये हुए अनुभव-संवेदनों को ही उन्होंने तरज़ीह दी है। किताबी, आयातित या उधार लिया हुआ, उसमें लगभग कुछ भी नहीं है, न रहा है। इसी नाते उनकी अभिव्यक्ति विश्वसनीय भी है और सहज तथा प्रकृत भी। प्रगतिशील आन्दोलन के शुरूआती दौर में जो उफ़ान और आवेग, जो लाउडनेस (Loudness) कविता में थी, उनकी कविता में उसकी अनुगूँजें नहीं आयीं। न तो वे पहले लाउड (Loud) थे और न ही आज हैं। रचनाधर्मी प्रयोग भी उसमें नहीं हैं। वह सीधी और सहज कविता है, फिर भी सपाट और सतही नहीं। चूँकि वह अनुभव-प्रसूत है अतएव उसमें शिल्प के बजाय बात बोली है — सारगर्भित बात, जिसे किसी भंगिमा की दरकार नहीं, जो अपने कथ्य और उससे जुड़ी संवेदना के बल पर पढ़ने वाले के दिल-दिमाग़ में उतर जाती है। उसकी विशेषता उसकी प्रशांति तथा प्रांजलता है।
महेंद्रभटनागर की इन कविताओं की एक अन्य विशेषता यह भी है कि अपनी जन-धर्मिता, जीवन-धर्मिता तथा बदले और लगातार बदल रहे समय के प्रति जागरूकता बनाए रहते हुए भी वह चैहद्दियों में बँधी नहीं रही। उससे आगे-कुछ ऐसे विषयों की ओर भी वह गयी है जो कविता के सनातन विषय रहे हैं — मसलन प्रेम और प्रकृति, जीवन और मृत्यु आदि।
इस तरह देखा जाय तो महेंद्रभटनागर प्रगतिशील कवियों की उस पंक्ति के कवि हैं जिनकी रचना-धर्मिता ने प्रगतिशील कविता के फलक को व्यापक बनाया है। बावज़ूद इसके, इन विषयों पर पूर्ववत्र्ती कवियों की मानसिकता के तहत न लिखकर महेंद्रभटनागर के कवि ने उन पर उस मनोभूमि में लिखा है, जिस मनोभूमि में ये विषय केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन या नागार्जुन जैसे प्रगतिशील कवियों द्वारा उजागर हुए हैं। महेंद्रभटनागर की प्रकृति-कविताएँ केदार अग्रवाल की कविताओं का स्मरण कराती हैं तो ‘स्वकीया’ के आलम्बन वाली प्रेम-कविताओं में हमें नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार एक साथ दिखायी देते हैं। ये कविताएँ उपर्युक्त कवियों की अनुकृति नहीं, समानता है तो मनोभूमि की।
आज के समय में आदमियत के क्षरण पर, राजनीति की विद्रूपताओं पर, सामाजिक जीवन की विकृतियों और विडम्बनाओं पर भी कवि ने लिखा है। बावज़ूद इसके आदमी के उज्ज्वल भविष्य पर उसे भरोसा है। वह निराश और हताश इस नाते नहीं है कि उसके पास वह इतिहास-दृष्टि है, जो उसे बताती है कि आदमी ज़िन्दा है और ज़िन्दा रहेगा — हर आपदा-विपदा के बावज़ूद, क्योंकि उसके पास उसके श्रम की शक्ति है, और श्रमजीवी कभी नहीं मरा करता। महेन्द्र भटनागर के कवि-कर्म से कविता की प्रगतिशील धारा समृद्ध हुई है, ऐसा विश्वास के साथ कहा जा सकता है। कुल मिलाकर, महेंद्रभटनागर की कविता धरती और जीवन के प्रति अकुंठ राग की कविता है। वह मानव-जिजीविषा की कविता है, जो मरना नहीं जानती।

— डा. शिवकुमार मिश्र, वल्लभ-विद्यानगर (गुजरात)



कविताएँ

1 कला-साधना / 2
2 कविता-प्रार्थना / 3
3 प्रतीक्षक / 4
4 दो ध्रुव / 5
5 दृष्टि / 6
6 परिवर्तन / 6
7 सुखद / 7
8 अनुभव-सिद्ध / 8
9 अदम्य / 9
10 सार्थकता / 10
11 अमानुषि / 11
12 इतिहास का एक पृष्ठ / 12
13 अग्नि-परीक्षा / 14
14 विचित्र / 16
15 संक्रमण / 17
16 सहभाव / 18
17 अब नहीं / 18
18 वर्तमान / 19
19 परिणति / 20
20 नवोन्मेष / 20
21 अंधकार / 21
?2 आलोक / 22
23 दीप जलता है! / 23
24 आज की ज़िन्दगी / 24
25 मध्य-वर्ग - 1 / 25
26 मध्य-वर्ग - 2 / 25
27 भविष्यत् / 26
28 लेखनी से — / 27
29 निश्चय / 28
30 बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे! / 29
31 काटो धान / 31
32 मुख को छिपाती रही / 33
33 अजेय / 34
34 पहली बार / 35
35 ज़िन्दगी कैसे बदलती है! / 37
36 नयी नारी / 38
37 मशाल / 40
38 ग्रीष्म / 41
39 नारी / 42
***********************************



कला-साधना

हर हृदय में
स्नेह की दो बूँद ढल जाएँ
कला की साधना है इसलिए !

गीत गाओ
मोम में पाषाण बदलेगा,
तप्त मरुथल में
तरल रस ज्वार मचलेगा !
गीत गाओ
शांत झंझावात होगा,
रात का साया
सुनहरा प्रात होगा !

गीत गाओ
मृत्यु की सुनसान घाटी में
नया जीवन-विहंगम चहचहाएगा !
मूक रोदन भी चकित हो
ज्योत्स्ना-सा मुसकराएगा !

हर हृदय में
जगमगाए दीप
महके मधु-सुरिभ चंदन
कला की अर्चना है इसलिए !
गीत गाओ
स्वर्ग से सुंदर धरा होगी,
दूर मानव से जरा होगी,
देव होगा नर,
व नारी अप्सरा होगी !

गीत गाओ
त्रास्त जीवन में
सरस मधुमास आ जाए,
डाल पर, हर फूल पर
उल्लास छा जाए !
पुतलियों को
स्वप्न की सौगात आए !
गीत गाओ
विश्व-व्यापी तार पर झंकार कर !
प्रत्येक मानस डोल जाए
प्यार के अनमोल स्वर पर !

हर मनुज में
बोध हो सौन्दर्य का जाग्रत
कला की कामना है इसलिए
===================================
कविता-प्रार्थना

आदमी को
आदमी से जोड़ने वाली,
क्रूर हिंसक भावनाओं की
उमड़ती आँधियों को
मोड़ने वाली,
उनके प्रखर
अंधे वेग को — आवेग को
बढ़
तोड़ने वाली
सबल कविता µ
ऋचा है, / इबादत है !

उसके स्वर
मुक्त गूँजें आसमानों में,
उसके अर्थ ध्वनित हों
सहज निश्छल
मधुर रागों भरे
अन्तर-उफ़ानों में !

आदमी को
आदमी से प्यार हो,
सारा विश्व ही
उसका निजी परिवार हो !

हमारी यह
बहुमूल्य वैचारिक विरासत है !
महत्
इस मानसिकता से
रची कविता —
ऋचा है, इबादत है !
===============================
प्रतीक्षक

अभावों का मरुस्थल
लहलहा जाये,
नये भावों भरा जीवन
पुनः पाये,
प्रबल आवेगवाही
गीत गाने दो !

गहरे अँधेरे के शिखर
ढहते चले जाएँ,
उजाले की पताकाएँ
धरा के वक्ष पर
सर्वत्रा लहराएँ,
सजल संवेदना का दीप
हर उर में जलाने दो !
गीत गाने दो !

अनेकों संकटों से युक्त राहें
मुक्त होंगी,
हर तरफ़ से
वृत्त टूटेगा
कँटीले तार का
विद्युत भरे प्रतिरोधकों का,
प्राण-हर विस्तार का !

उत्कीर्ण ऊर्जस्वान
मानस-भूमि पर
विश्वास के अंकुर
जमाने दो !
गीत गाने दो !
==============================
दो ध्रुव

स्पष्ट विभाजित है
जन-समुदाय —
समर्थ / असहाय।
हैं एक ओर —
भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविधा-साधन-सम्पन्न
प्रसन्न।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब!
बँगले हैं / चकले हैं,
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत,
हैरत है, हैरत!

दूसरी तरफ़ —
जन हैं
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त ... त्रास्त,
अनपढ़,
दलित असंगठित,
खेतों - गाँवों / बाजा़रों - नगरों में
श्रमरत,
शोषित / वंचित / शंकित!
==================================
दृष्टि

जीवन के कठिन संघर्ष में
हारो हुओ!
हर क़दम
दुर्भाग्य के मारो हुओ!
असहाय बन
रोओ नहीं,
गहरा अँधेरा है,
चेतना खोओ नहीं!

पराजय को
विजय की सूचिका समझो,
अँधेरे को
सूरज के उदय की भूमिका समझो!

विश्वास का यह बाँध
फूटे नहीं!
नये युग का सपन यह
टूटे नहीं!
भावना की डोर यह
छूटे नहीं!
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परिवर्तन

मौसम कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!

सपना — जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!

समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा, छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!

साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम कितना बदल गया!
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सुखद

सहधर्मी / सहकर्मी
खोज निकाले हैं
दूर - दूर से
आस - पास से
और जुड़ गया है
अंग - अंग
सहज
किन्तु / रहस्यपूर्ण ढंग से
अटूट तारों से,
चारों छोरों से
पक्के डोरों से!

अब कहाँ अकेला हूँ ?
कितना विस्तृत हो गया अचानक
परिवार आज मेरा यह!
जाते - जाते
कैसे बरस पड़ा झर - झर
विशुद्ध प्यार घनेरा यह!

नहलाता आत्मा को
गहरे - गहरे!
लहराता मन का
रिक्त सरोवर
ओर - छोर
भरे - भरे!
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अनुभव-सिद्ध

तय है कि काली रात गुज़रेगी,
भयावह रात गुज़रेगी !
असफल रहेगा
हर घात का आघात,
पराजित रात गुज़रेगी !
यक़ीनन हम
मुक्त होंगे त्रासदायी स्याह घेरे से,
रू-ब-रू होंगे
स्वर्णिम सबेरे से,
अरुणिम सबेरे से !
तय है —
अँधेरे पर उजाले की विजय तय है !
पक्षी चहचहाएंगे,
मानव प्रभाती गान गाएंगे !
उतरेंगी गगन से सूर्य-किरणें
नृत्य की लय पर,
धवल मुसकान भर - भर !
तय है कि
संघातक कठिन दुःसह अँधेरी रात गुज़रेगी !
कुचक्रों से घिरा आकाश बिफरेगा,
आहत ज़िन्दगी इंसान की
सँवरेगी !
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अदम्य

दूर-दूर तक छाया सघन कुहरµ
कुहरे को भेद
डगर पर बढ़ते हैं हम !

चट्टानों ने जब-जब पथ अवरुद्ध किये —
चट्टानों को तोड़ नयी राहें गढ़ते हैं हम !

ठंडी तेज़ हवाओं के वर्तुल झोंके आते हैंµ
तीव्र चक्रवातों के सम्मुख सीना ताने
पग-पग अड़ते हैं हम !

सागर-तट पर टकराता भीषण ज्वारों का पर्वत —
उमड़ी लहरों पर चढ़ पूरी ताक़त से लड़ते हैं हम !

दरियाओं की बाढ़ें तोड़ किनारे बहती हैं —
जल भँवरों / आवेगों को थाम;
सुरक्षा-यान चलाते हैं हम !

काली अंधी रात क़यामत की
धरती पर घिरती है जब-जब —
आकाशों को जगमग करते
आशाओं के / विश्वासों के,
सूर्य उगाते हैं हम !
मणि-दीप जलाते हैं हम

ज्वालामुखियों ने जब-जब
उगली आग भयावह —
फैले लावे पर
घर अपना बेख़ौफ़ बनाते हैं हम !

भूकम्पों ने जब-जब
नगरों गाँवों को नष्ट किया —
पत्थर के ढेरों पर
बस्तियाँ नयी हर बार बसाते हैं हम !

परमाणु-बमों / उद्जन-शस्त्रों की
मारों से
आहत भू-भागों पर
देखो कैसे
जीवन का परचम फहराते हैं हम !
चारों ओर नयी अँकुराई हरियाली
लहराते हैं हम !

कैसे तोड़ोगे इनके सिर ?
कैसे फोड़ोगे इनके सिर ?
दुर्दम हैं,
इनमें अद्भुत ख़म है !
काल-पटल पर अंकित है —
‘जीवन-अपराजित है !’
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सार्थकता

आओ
दीवारों के घेरों / परकोटों से
बाहर निकलें !
अपने सुख-चिन्तन से ऊपर उठ कर
जग-क्रन्दन को स्वर-सरगम में बदलें !

मुरझाये रोते चेहरों को मुसकानें बाँटें,
उनके जीवन-पथ पर छितराया कुहरा छाँटें !
रँग दें घनघोर अँधेरे को
जगमग तीव्र उजालों से,
त्रासों और अभावों की निर्मम मारों से,
हारों को, लाचारों को
ढक दें, लद-लद पीले-लाल गुलाबों की
जयमालों से !
घर-घर जाकर सहमे-सहमे बच्चों को
प्यारी-प्यारी मोहक किलकारी दें,
कँकरीली और कँटीली परती पर
रंग-बिरंगी लहराती फुलवारी दें !
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अमानुषिक

आज फिर खंडित हुआ विश्वास,
आज फिर धूमिल हुई
अभिनव ज़िन्दगी की आस !
ढह गये साकार होती कल्पनाओं के महल !
बह गये अतितीव्र अतिक्रामक उफ़नते ज्वार में,
युग-युग सहेजे
भव्य-जीवन-धारणाओं के अचल !
आज छाये फिर प्रलय-घन,
सूर्यµ संस्कृति-सभ्यता का
फिर ग्रहण-आहत हुआ,
षड्यंत्रों-घिरा यह देश मेरा
आज फिर मर्माहत हुआ !
फैली गंध नगर-नगर
विषैली प्राणहर बारूद की,
विस्फोटकों से पट गयी धरती,
सुरक्षा-दुर्ग टूटे
और हर प्राचीर क्षत-विक्षत हुई !
जन्मा जातिगत विद्वेष,
फैला धर्मगत विद्वेष,
भूँका प्रांत-भाषा द्वेष,
गँदला हो गया परिवेश !
सर्वत्रा दानव वेश !
घुट रही साँसें, प्रदूषित वायु,
विष-घुला जल, छटपटाती आयु !
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इतिहास का एक पृष्ठ

सच है, घिर गये हैं हम
चारों ओर से / हर क़दम पर
नर-भक्षियों के चक्रव्यूहों में,
भौंचक-से खड़े हैं
लाशों-हड्डियों के ढूहों में !
सच है, फँस गये हैं हम
चारों ओर से / हर क़दम पर
नर-भक्षियों के दूर तक
फैलाए-बिछाए जाल में,
छल-छद्म की उनकी घिनौनी चाल में !

बारूदी सुरंगों से जकड़ कर
कर दिया निष्क्रिय हमारे लौह-पैरों को
हमारी शक्तिशाली दृढ़ भुजाओं को !
भर दिया घातक विषैली गंध से,
दुर्गन्ध से
चारों दिशाओं की हवाओं को !

सच है , उनके क्रूर पंजों ने
है दबा रखा गला,
भींच डाले हैं
हर अन्याय को करते उजागर
दहकते रक्तिम अधर !
मस्तिष्क की नस-नस
विवश है फूट पड़ने को,
ठिठक कर रह गये हैं हम !
खंडित पराक्रम
अस्तित्व / सत्ता का अहम् !

सच है कि
आक्रामक-प्रहारक सबल हाथों की
जैसे छीन ली क्षमता त्वराµ
अब न हम ललकार पाते हैं
न चीख पाते हैं,
स्वर अवरुद्ध मानवता-विजय-विश्वास का,
सूर्यास्त जैसे गति-प्रगति की आस का !
अब न मेधा में हमारी
क्रांतिकारी धारणाओं-भावनाओं की
कड़कती तीव्र विद्युत कौंधती है,
चेतना जैसे
हो गयी है सुन्न जड़वत् !
चेष्टाहीन हैं / मजबूर हैं,
हैरान हैं, भारी थकन से चूर हैं !

लेकिन नहीं अब और स्थिर रह सकेगा
आदमी का आदमी के प्रति
हिंसा-क्रूरता का दौर !
दृढ़ संकल्प करते हैं
कठिन संघर्ष करने के लिए,
इस स्थिति से उबरने के लिए!
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अग्नि-परीक्षा

काली भयानक रात,
चारों ओर झंझावात,
पर, जलता रहेगा — दीप...
मणिदीप सद्भाव का / सहभाव का !
उगती जवानी देश की होगी नहीं गुमराह !
उजले देश की जाग्रत जवानी
लक्ष्य युग का भूल होगी नहीं गुमराह
तनिक तबाह !

मिटाना है उसे —
जो कर रहा हिंसा,
मिटाना है उसे —
जो धर्म के उन्माद में फैला रहा नफ़रत,
लगाकर घात गोली दाग़ता है
राहगीरों पर / बेक़सूरों पर !
मिटाना है उसे —
जिसने बनायी;
धधकती बारूद-घर दरगाह !
इन गंदे इरादों से
नये युग की जवानी
तनिक भी होगी नहीं गुमराह !

चाहे रात काली और हो,
चाहे और भीषण हों
चक्रवात-प्रहार,
पर, सद्भाव का: सहभाव का
ध्रुव-दीप / मणि-दीप
निष्कम्प रह जलता रहेगा !
साधु जीवन की
सतत साधक जवानी / आधुनिक,
होगी नहीं गुमराह !

भले ही वज्रवाही बदलियाँ छाएँ,
भले ही वेगवाही आँधियाँ आएँ,
सद्भावना का दीप
सम्यक् धारणा का दीप
संशय-रहित हो
अविराम / यथावत्
जलता रहेगा !
एक पल को भी न टूटेगा
प्रकाश-प्रवाह !
विचलित हो,
नहीं होगी जवानी देश की गुमराह !
उभरीं विनाशक शक्तियाँ जब-जब,
मनुजता ने दबा कुचला उन्हें तब-तब !
अमर —
विजय विश्वास !
इतिहास
चश्मदीद गवाह !
जलती जवानी देश की होगी नहीं गुमराह !

एकता को तोड़ने की साज़िशें
नाकाम होंगी,
हम रहेंगे एक राष्ट्र अखंड
शक्ति प्रचंड !
सहन हरगिज़ नहीं होगा
देश के प्रति छल-कपट
विश्वासघात गुनाह !
मेरे देश की विज्ञान-आलोकित जवानी
अंध-कूपों में कभी होगी नहीं गुमराह !
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विचित्र

यह कितना अजीब है !
आज़ादी के तीन-तीन दशक
बीत जाने के बाद भी
पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत जाने के बाद भी
मेरे देश का आम आदमी ग़रीब है !
बेहद ग़रीब है !
यह कितना अजीब है !
सर्वत्रा धन का, पद का, पशु का
साम्राज्य है,
यह कैसा स्वराज्य है ?

धन, पद, पशु
भारत-भाग्य-विधाता हैं,
चारों दिशाओं में उन्हीं का जय-जयकार,
उन्हीं का अहंकार
व्याप्त है, परिव्याप्त है,
और सब-कुछ समाप्त है !
शासन अंधा है, बहरा है,
जन-जन का संकट गहरा है !
(खोटा नसीब है !)
लगता है — परिवर्तन दूर नहीं,
क़रीब है !
किन्तु आज यह सब
कितना अजीब है !
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संक्रमण

यह नहीं होगा —
बंदूक की नोक
सचाई को दबाये रखे,
आदमी को आततायी के
पैरों पर झुकाये रखे,
यह नहीं होगा !

पशुता की गुलामी
अनेकों शताब्दियाँ
ढो चुकी हैं,
लेकिन अब
ऐसा नहीं होगा !

यातनाओं की
किरचें भोथरी हो चुकी हैं,
क्या तुम नहीं देखते —
क्रूर जल्लादों की
वहशी योजनाओं की
बुनियादें हिल रही हैं ?
मौत की
काल-कोठरी बने
हर देश को
ज़िन्दगी की
हवा और रोशनी
मिल रही है !
घिनौनी साज़िशों का
पर्दा उठ गया है,
सारा माहौल ही
अब तो नया है !
==============================

सद्भाव

आओ,
दूरियाँ देशान्तरों की, व्यक्तियों की
अत्यधिक सामीप्य में बदलें।
बहुत मज़बूत अन्तर-सेतु
बाँधें !

आओ,
अ-जनबीपन हृदय का
अनुभूतियों का
सांत्वना आश्वास में बदलें।
परस्पर मित्राता का गगन-चुम्बी केतु
बाँधें !

आओ,
अविद्या-अज्ञता धर्मान्तरों की
भिन्नता विश्वास की
समधीत सम्यक् बोध में बदलें।
सुनिश्चित विश्व-मानव-हेतु
साधें !
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अब नहीं

अब सम्भव नहीं
बीते युगों की नीतियों पर एक पग चलना,
निरावृत आज
शोषक-तंत्र की प्रत्येक छलना।

अब नहीं सम्भव तनिक
बीते युगों की मान्यताओं पर
सतत गतिशील
मानव-चेतना को रुद्ध कर बढ़ना।

सकल गत विधि-विधानों की
प्रकट निस्सारता,
किंचित नहीं सम्भव मिटाना अब
बदलते लोक-जीवन की नयी गढ़ना।

शिखर नूतन उभरता है मनुज सम्मान का,
हर पक्ष नव आलोक में डूबा निखरता है
दमित प्रति प्राण का,
नव रूप
प्रियकर मूर्ति में ढल कर सँवरता है
सबल चट्टान का।
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वर्तमान

युग —
अराजकता-अरक्षा का,
सतत विद्वेष-स्वर-अभिव्यक्ति का,
कटु यातनाओं से भरा,
अमंगल भावनाओं से डरा !
धूमिल
गरजते चक्रवातों ग्रस्त !
प्रतिक्षण अभावों-संकटों से त्रास्त !
युग —
निर्दय विघातों का,

असह विष दुष्ट बातों का !
अभोगी वेदना का,
लुप्त मानव-चेतना का !

घोर अनदेखे अँधेरे का !
अ-जनबी / शोर,
रक्तिम क्रूर जन-घातक सबेरे का !
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परिणति

आजन्म
अपमानित-तिरस्कृत
ज़िन्दगी
पथ से बहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?

आजन्म
आशा-हत
सतत संशय-भँवर उलझी
पराजित ज़िन्दगी
अविरत लहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?

आजन्म
वंचित रह
अभावों-ही-अभावों में
घिसटती ज़िन्दगी
औचट दहकती यदि —
सहज; आश्चर्य क्या है ?
==================================

नवोन्मेष

खण्डित पराजित
ज़िन्दगी ओ ! सिर उठाओ,
आ गया हूँ मैं
तुम्हारी जय सदृश
सार्थक सहज विश्वास का हिमवान !

अनास्था से भरी
नैराश्य-तम खोयी
थकी हत-भाग सूनी
ज़िन्दगी ओ ! सिर उठाओ,
और देखो
द्वार दस्तक दे रहा हूँ मैं
तुम्हारे भाग्य-बल का
जगमगाता सूर्य तेजोवान !

ज़िन्दगी
इस तरह टूटेगी नहीं !
ज़िन्दगी
इस तरह बिखरेगी नहीं !
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अंधकार

शीत युद्ध से समस्त विश्व त्रास्त
हो रहा मनुष्य भय विमोह ग्रस्त !

डगमगा रही निरीह नीति-नाव
जल अथाह, नष्ट पाल-बंधु-भाव !

राष्ट्र द्वेष की भरे अशेष दाह
मित्राता प्रसार की निबद्ध राह !

मच रही अजीब अंध शस्त्र-होड़
पशु बना मनुज विचार-शक्ति छोड़ !

जन-विनाश चक्र चल रहा दुरंत
आज साधु-सभ्यता विहान अंत !

गूँजते चतुर्दिशा कठोर बोल
रम्य-शांति-राग का रहा न मोल !

एकता-सितार तार छिन्न-भिन्न !
हर दिशा उदास मूक खिन्न-खिन्न !

अस्त सूर्य, प्राण वेदना अपार
अंधकार, अंधकार, अधंकार !
======================================

आलोक

मनुष्य का भविष्य —
अंधकार से, शीत-युद्ध-भय प्रसार से
मुक्त हो,मुक्त हो !
रश्मियाँ विमल विवेक की विकीर्ण हों,
शक्तियाँ विकास की विरोधिनी विदीर्ण हों !
वर्ग-वर्ण भेद से,
आदमी-ही-आदमी की क़ैद से
मुक्त हो, मुक्त हो !
चक्रवात, धूल, वज्रपात से
नवीन मानसी क्षितिज
घिरे नहीं, घिरे नहीं !
नये समाज का शिखर
गिरे नहीं, गिरे नहीं !
पुनीत दिव्य साधना,
विश्व-शांति कामना,
उषा समान भूमि को सिँगार दे,
त्रास्त जग उबार दे
प्यार से दुलार दे!
नवीन भावना-पराग
आग में झुलसµ
जले नहीं, जले नहीं !
अनेक अस्त्रा-शस्त्रा बल प्रहार से,
विषाक्त दानवी घृणा प्रचार से,
वर्तमान सभ्यता
मुक्त हो, मुक्त हो !
=======================================

दीप जलता है

दीप जलता है !
सरल शुभ मानवी संवेदना का स्नेह भरकर
हर हृदय में दीप जलता है !
युग-चेतना का ज्वार
जीवन-सिंधु में उन्मद मचलता है !
दीप जलता है !

तिमिर-साम्राज्य के
आतंक से निर्भय
अटल अवहेलना-सा दीप जलता है !

जगमगाता लोक नव आलोक से,
मुक्त धरती को करेंगे
अब दमन भय शोक से !

लुप्त होगा सृष्टि बिखरा तम
हृदय की हीनता का;
क्योंकि घर-घर
व्यक्ति की स्वाधीनता का
दीप जलता है !

बदलने को धरा
नव-चक्र चलता है !
नहीं अब भावना को
गत युगों का धर्म छलता है !
सकल जड़ रूढ़ियों की
शृंखलाएँ तोड़
नव, सार्थक सबल विश्वास का
ध्रुव-दीप जलता है !
========================================

आज की ज़िन्दगी

ज़िन्दगी हँसती हुई मुरझा गयी ;
चाँद पर बदली गहन आ छा गयी !

यामिनी का रूप सारा हर लिया
कामिनी को हाय विधवा कर दिया !

आदमी की सब बहारें छीन लीं,
उपवनों की फूल-कलियाँ बीन लीं !

फट गया मन लहलहाते खेत का,
बेरहम तूफ़ान आया रेत का !

उर-विदारक दीखता है हर सपन,
सब तरफ़ से चाहनाओं का दमन !

रीति बदलीं आधुनिक संसार की,
राह सारी मुड़ गयी हैं प्यार की !

सामने बस स्वार्थ का जंगल घना
दुर्ग जिसमें डाकुओं का है बना !

मौत की शहनाइयाँ बजती जहाँ,
रंग-बिरंगी अर्थियाँ सजती जहाँ !

लेटने को हम वहाँ मजबूर हैं,
वेदना से अंग सारे चूर हैं !

इस तरह लँगड़ी हुई है ज़िन्दगी
लड़खड़ाकर गिर रही लकवा लगी !
=============================================

मध्य-वर्ग (चित्र 1)

मेघों से घिरा आकाश है !
चहुँ ओर छाया,
बंद आँखों के सदृश,
गहरा अँधेरा,
घोंसलों में मूक चिड़ियाँ
ले रहीं सुख से बसेरा,
और हर अट्टालिका में
बज रहा मनहर पियानो, तानपूरा !

पर, टपकती छत तले
सद्यः प्रसव से एक माता आह भरती है !
मगर यह ज़िन्दगी इंसान की
मरती नहीं,
रह-रह उभरती है !
========================================

मध्य-वर्ग (चित्र 2)

दस बज रहे हैं रात के —
काफ़ी दूर पर
कुछ बेसुरे-से ढोल बजते हैं
किसी बारात के !

अति-तार स्वर से
गा रहा है रेडियो सीलोन
बासी गीत फ़िल्मी
‘आन’ के ‘बरसात’ के !
पास के घर में
थकी-सी अर्द्ध-निद्रित
तीस वर्षीया कुमारी
करवटें लेती किसी की याद में !
क्लर्क है उसका पिता
और वह उलझा हुआ है
फ़ाइलों के ढेर में !
(ज़िन्दगी के फेर में !)
सोचता है —
रात काफ़ी हो गयी,
अब शेष देखा जायगा जी बाद में !
झँपने लगीं पलकें
बडे़ बेफ़िक्र बचपन की सहेजी याद में !
==========================================

भविष्यत्

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
अपार अंधकार है, प्रगाढ़ अंधकार है !
न चाँद है, न सूर्य,
बज रहा न सावधान-तूर्य !

मृत्यु के कगार पर
खड़ी मनुष्यता सभीत,
बार-बार लड़खड़ा रही !
कि उद्जनों व अणुबमों-प्रयोग से
कराह काँपती मही !
तबाह द्वीप हो रहे,
बड़े-बड़े नगर तमाम
देखते सदैव स्वप्न में ‘हिरोशिमा’ !
गगन विराट वक्ष पर
विकीर्ण लालिमा,
धुआँ, धुआँ, धुआँ !

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
प्रकाश चाहिए,
प्रकाश का प्रवाह चाहिए !
हरेक भुरभुरे कगार पर
सशक्त बाँध चाहिए !
अटल खड़ा रहे मनुष्य,
आँधियों के सामने
अड़ा रहे मनुष्य
शक्तिवान, वीर्यवान, धैर्यवान !

ज़िन्दगी तबाह हो नहीं,
कराह और आह हो नहीं !
हँसी, सफ़ेद दूधिया हँसी
हरेक आदमी के पास हो !
सुखी भविष्य की नवीन आस हो !
============================================

लेखनी से —

लेखनी मेरी !
समय-पट पर चलो ऐसी कि जिससे
त्रास्त जर्जर विश्व का
फिर से नया निर्माण हो !
क्षत, अस्थि-पंजर, पस्त-हिम्मत
मनुज की सूखी शिराओं में
रुधिर-उत्साह का संचार हो !

ओ लेखनी मेरी, चलो !
साये हुए हैं जो
उन्हें उगते दिवाकर की ख़बर दो !
और पथ में जो रुके
उनको नयी ज्योतित डगर दो !
काफ़िला जो
रेत के नीचे दबा बेचैन है
उसे सतत आकाश-आरोहणमयी
नव-शक्ति दो !

भयभीत जो
उसको सबल विश्वास दो !
रोते हुए मुख पर रुपहला हास दो !

ओ लेखनी मेरी ! चलो,
जिससे कि दकियानूस-दुनिया के
सभी दृढ़ लौह बंधन टूट जाएँ,
और संस्कृति-सभ्यता की मूर्तियाँ सब
आततायी के विषैले क्रूर चंगुल से
सदा को छूट जाएँ !

ध्वंस पर
अभिनव-सृजन-आह्नान दो,
हर आदमी के कंठ में
श्रम का सबल मधु गान दो !
प्रत्येक उर में प्यार का सागर भरो,
धुँधले नयन में रोशनी घर-घर भरो
====================================

निश्चय

एक दिन निश्चय
तुम्हारे हर घिनौने और ज़हरीले
इरादों की समस्त जड़ें
अवनि को फोड़ उखड़ेंगी।
एक दिन निश्चय
तुम्हारी बेरहम नंगी कि ख़ूनी
वासनाओं की सड़ी धारा
धरा की धमनियों को छोड़कर
आकाश-पथ पर सूख जाएगी !
तुम्हारे स्वप्न के
सारे गगन-चुंबी महल
अभिनव प्रखर स्वर्णिम सुबह तक
पत्थरों के ढेर में
निश्चय, बदल कर
भूमि पर सोते मिलेंगे !

आज जन-जन के हृदय में आग है,
मुँह से निकलती बात भी बेलाग है !
संघर्ष से हर आदमी को
हो गयी बेहद मुहब्बत,
ज़िंदगी की पड़ गयी आदत
हमेशा राह पर चलना !
निरंतर सूर्य-सा जलना !
मनुष्यों की अथक ऐसी
निडर, दृढ़ फौज़ उगती जा रही,
जिसके क़दम पड़ते
धरा सज्जा बदलती जा रही !
=========================================

बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !

कुछ लोग
चाहे ज़ोर से कितना
बजाएँ युद्ध का डंका
पर, हम कभी भी
शांति का झंडा
ज़रा झुकने नहीं देंगे !
हम कभी भी
शांति की आवाज़ को
दबने नहीं देंगे !

क्योंकि हम
इतिहास के आरम्भ से
इंसानियत में,
शांति में
विश्वास रखते हैं,
गौैतम और गांधी को
हृदय के पास रखते हैं !
किसी को भी सताना
पाप सचमुच में समझते हैं,
नहीं हम व्यर्थ में पथ में
किसी से जा उलझते हैं !

हमारे पास केवल
विश्व-मैत्री का,
परस्पर प्यार का संदेश है,
हमारा स्नेह —
पीड़ित ध्वस्त दुनिया के लिए
अवशेष है !

हमारे हाथ -
गिरतों को उठाएंगे,
हज़ारों
मूक, बंदी, त्रस्त, नत,
भयभीत, घायल औरतों को
दानवों के क्रूर पंजों से बचाएंगे !

हमें नादान बच्चों की हँसी
लगती बड़ी प्यारी;
हमें लगती
किसानों के
गड़रियों के
गलों से गीत की कड़ियाँ मनोहारी !

खुशी के गीत गाते इन गलों में
हम
कराहों और आहों को
कभी जाने नहीं देंगे !
हँसी पर ख़ून के छींटे
कभी पड़ने नहीं देंगे !
नये इंसान के मासूम सपनों पर
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !
==============================================

काटो धान

काटो धान, काटो धान, काटो धान !

सारे खेत
देखो दूर तक कितने भरे,
कितने भरे / पूरे भरे !
घिर लहलहाते हैं
न फूले रे समाते हैं !
हवा में मिल
कुसुम-से खिल !

उठो, आओ,
चलो, इन जीर्ण कुटियों से
बुलाता है तुम्हें, साथी खुला मैदान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

जब हिम-नदी का चू पड़ा था जल
अनेकों धार में चंचल,
हिमालय से बहायी जो गयी थी धूल
उसमें आज खिलते रे श्रमिक !
तेरे पसीने से सिँचे
प्रति पेड़ की हर डाल में
सित, लाल, पीले, फूल !
जीन के लिए देती तुम्हें
ओ ! आज भू माता सहज वरदान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

आकाश में जब घिर गये थे
मॉनसूनी घन सघन काले,
हृदय सूखे हुए
तब आश-रस से भर गये थे
झूम मतवाले !

किसी
सुन्दर, सलोनी, स्वस्थ, कोमल, मधु
किशोरी के नयन
कुछ मूक भाषा में
नयी आभा सजाए जगमगाए श्वेत-कजरारे !
हुए साकार
भावों से भरे
अभिनव सरल जीवन लिए,
नूतन जगत के गान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

जो सृष्टि के निर्माण हित बोए
तुम्हारी साधना ने बीज थे
वे पल्लवित !
सपने पलक की छाँह में
पा चाह
शीतल ज्योत्स्ना की गोद में खेले !
(अरी इन डालियों को बाँह में ले ले !)

उठो !
कन्या-कुमारी से अखिल कैलाश के वासी
सुनो, गूँजी नयी झंकार !
हर्षित हो उठो !
परिवार सारे गाँव के
देखो कि चित्रित हो रहे अरमान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !

टूटे दाँत ,
सूखे केश,
मुख पर झुर्रियों की वह सहज मुसकान,
प्रमुदित मुग्ध
फैला विश्व में सौरभ
महकता नभ,
सजग हो आज
मेर देश का अभिमान !
काटो धान, काटो धान, काटो धान !
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मुख को छिपाती रही

धुआँ ही धुआँ है,
नगर आज सारा नहाता हुआ है !

अँगीठी जली हैं
व चूल्हे जले हैं,
विहग
बाल-बच्चों से मिलने चले हैं !
निकट खाँसती है
छिपी एक नारी
मृदुल भव्य लगती कभी थी,
बनी थी
किसी की विमल प्राण प्यारी !

उसी की शक़ल अब
धुएँ में सराबोर है !
और मुख की ललाई
अँधेरी-अँधेरी निगाहों में खोयी !

जिसे ज़िन्दगी से
न कोई शिकायत रही अब,
व जिसके लिए
है न दुनिया
भरी स्वप्न मधु से
लजाती हुयी नत !

अनेकों बरस से
धुएँ में नहाती रही है !
कि गंगा व यमुना-सा
आँसू का दरिया
बहाती रही है !
फटे जीर्ण दामन में
मुख को छिपाती रही है !

मगर अब चमकता है
पूरब से आशा का सूरज,
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही
दुख की शिकन !
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अजेय

मुझको मिली कब हार है !

तुम रोकते हो क्यों मुझे ?
तुम टोकते हो क्यों मुझे ?
धधका निराशा का अनल
तुम झोंकते हो क्यों मुझे ?
हैं अमर मेरे प्राण, मेरा अमर हर उद्गार है !

रुकना मुझे भाता नहीं,
थकना मुझे आता नहीं,
सह लक्ष-लक्ष प्रहार भी
झुकना मुझे आता नहीं,
प्रत्येक क्षण गतिवान जीवन, शक्ति का संसार है !

मैं बढ़ रहा तूफ़ान में,
ले क्रांति-ज्वाला प्राण में,
वरदान मुझको मिल रहा
प्रतिपद अभय बलिदान में,
नौका भँवर में हो फँसी, साहस अथक पतवार है !
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पहली बार

विश्व के इतिहास में
जनता सबल बन
आज पहली बार जागी है,
कि पहली बार बाग़ी है !

पुरानी लीक से हटकर
बड़ी मज़बूत चट्टानी रुकावट का
प्रबलतम धार से कर सामना डट कर,
विरल निर्जन कँटीली भूमि पथरीली
विलग कर, पार कर
जन-धार उतरी
मानवी जीवन धरातल पर
सहज अनुभूति अंतस-प्रेरणा बल पर !

कि पहली बार छायी हैं
लताएँ रंग-बिरँगी ये
कि जिनकी डालियों पर
देश की संकीर्ण रेखाएँ
सभी तो आज धुँधली हैं !
क्योंकि
अंतर में सभी के
एक से ही दर्द की
व्याकुल दहकती लाल चिनगारी
नवीना सृष्टि रचने की प्रलयकारी !

क़दम की एकता यह आज पहली है,
तभी तो हर विरोधी चोट सह ली है !

गुज़र गये हैं
हहरते क्रुद्ध भीषण अग्नि के तूफ़ान
जिनका था नहीं अनुमान
सभी के स्वत्व के संघर्ष में युग-व्यस्त
भावी वर्ष-सम साधक
भुवन प्रत्येक जन-अधिकार का रक्षक !
केलीफ़ोर्निया की मृत्यु-घाटी से,
कलाहारी, सहारा, हब्स, टण्ड्रा से
मिटी अज्ञान की गहरी निशा,
ज्योतित नये आलोक से रे हर दिशा !
निर्माण हित उन्मुख जगत जनता

विविध रूपा
विविध समुदाय
बैठा अब नहीं निरुपाय
उसको मिल गया
सुख-स्वर्ग का नव मंत्र
मुक्त स्वतंत्रा !

उसका विश्व सारा आज अपना है,
नहीं उसके लिए कोई पराया, दूर सपना है !
युगान्तर पूर्व युग-जीवन विसर्जन
दृढ़ अटल विश्वास के सम्मुख सभी
अन्याय पोषित भावनाओं का
हुआ अविलम्ब निर्वासन !

बुझते दीप फिर से आज जलते हैं,
कि युग के स्नेह को पाकर
लहर कर मुक्त बलते हैं !
सघन जीवन-निशा विद्युत लिये
मानो अँधेरे में बटोही जा रहा हो टॉर्च ले
जब-जब करें डगमग चरण
तब-तब करे जगमग
उभरता लोक-जीवन मग !

कल्मष नष्ट,
पथ से भ्रष्ट!

दूर कर आतंक,
नहीं हो नृप न कोई रंक !

अभी तक जो रहे युग-युग उपेक्षित
वे सँभल कर सुन रहे
विद्रोह की ललकार !
पहली बार है संसार का इतना बड़ा विस्तार,
कि पहली बार इतनी आज कुर्बानी अपार !
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ज़िन्दगी कैसे बदलती है !

यह झोपड़ी है फूस की,
जिसकी पुरानी भग्न दीवारें,
व आधी छत खुली!

इस रात में
जो है बड़ी ठंडी,
खड़ी है मौन, तम से ग्रस्त !

उसमें ले रहे हैं साँस
कोई तीन प्राणी,
हार जिनने
आज तक किंचित न मानी !
भूमि पर लेटे हुए,
गुदड़ी समेटे और गट्ठर से बने
निज ज्वाल-जीवन से हरारत पा
कुहर के बादलों में गर्म साँसें खींचते हैं !
और उसका शक्तिशाली उर
दबाकर भेदते हैं !

भग्न यदि दीवार है
पर, भग्न आशा है नहीं !
विश्वास धूमिल
और दृढ़ आवाज़ बंदी है नहीं !
कल देख लेना
ज़िन्दगी कैसे बदलती है !
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नयी नारी

तुम नहीं कोई
पुरुष की ज़र-ख़रीदी चीज़ हो,
तुम नहीं
आत्मा-विहीना सेविका
मस्तिष्क हीना-सेविका,
गुड़िया हृदयहीना !

नहीं हो तुम
वहीं युग-युग पुरानी
पैर की जूती किसी की,
आदमी के
कुछ मनोरंजन-समय की वस्तु केवल !
तुम नहीं कमज़ोर,
तुमको चाहिए ना सेज फूलों की !
नहीं मझधार में तुम
अब खड़ी शोभा बढ़ातीं
दूर कूलों की !

अब दबोगी तुम नहीं
अन्याय की सम्मुख,
नयी ताक़त, बड़ा साहस
ज़माने का तुम्हारे साथ है !
अब मुक्त कड़ियों से
तुम्हारे हाथ हैं !
तुम हो न सामाजिक न वैयक्तिक
किसी भी क़ैदखाने में विवश,
अब रह न पाएगा
तुम्हारे देह-मन पर
आदमी का वश
कि जैसे वह तुम्हें रक्खे, रहो,
मुख से न अपने भूल कर भी
कुछ कहो !
जग के करोड़ों आज युवकों की तरफ़ से
कह रहा हूँ मैं —
‘तुम्हारा ‘प्रभु’ नहीं हूँ,
हाँ, सखा हूँ !
और तुमको
सिर्फ़ अपने
प्यार के सुकुमार-बंधन में
हमेशा बाँध रखना चाहता हूँ !
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मशाल

बिखर गये हैं ज़िन्दगी के तार-तार !
रुद्ध-द्वार, बद्ध हैं चरण,
खुल नहीं रहे नयन ;
क्योंकि कर रहा है व्यंग्य
बार-बार देखकर गगन !
भंग राग-लय सभी
बुझ रही है ज़िन्दगी की आग भी !
आ रहा है दौड़ता हुआ

अपार अंधकार !
आज तो बरस रहा है विश्व में
धुआँ, धुआँ !
शक्ति लौह के समान ले
प्रहार सह सकेगा जो
जी सकेगा वह !
समाज वह —
एकता की शृंखला में बद्ध,
स्नेह-प्यार-भाव से हरा-भरा
लड़ सकेगा आँधियों से जूझ !

नवीन ज्योति की मशाल
आज तो गली-गली में जल रही,
अंधकार छिन्न हो रहा,
अधीर-त्रास्त विश्व को उबारने
अभ्रांत गूँजता अमोघ स्वर,
सरोष उठ रहा है बिम्ब-सा
मनुष्य का सशक्त सर !
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ग्रीष्म

तपता अम्बर, तपती धरती,
तपता रे जगती का कण-कण !

त्रास्त विरल सूखे खेतों पर
बरस रही है ज्वाला भारी,
चक्रवात, लू गरम-गरम से
झुलस रही है क्यारी-क्यारी,
चमक रहा सविता के फैले
प्रकाश से व्योम-अवनि-आँगन !

जर्जर कुटियों से दूर कहीं
सूखी घास लिए नर-नारी,
तपती देह लिए जाते हैं,
जिनकी दुनिया न कभी हारी,
जग-पोषक स्वेद बहाता है,
थकित चरण ले, बहते लोचन !

भवनों में बंद किवाड़ किये,
बिजली के पंखों के नीचे,
शीतल ख़स के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे,
वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन !

रोग-ग्रस्त, भूखे, अधनंगे
दमित, तिरस्कृत शिशु दुर्बल,
रुग्ण दुखी गृहिणी जिसका क्षय
होता जाता यौवन अविरल,
तप्त दुपहरी में ढोते हैं
मिट्टी की डलियाँ, फटे चरण !
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नारी

चिर-वंचित, दीन, दुखी बंदिनि! तुम कूद पड़ीं समरांगण में,
भर कर सौगन्ध जवानी की उतरीं जग-व्यापी क्रन्दन में,
युग के तम में दृष्टि तुम्हारी चमकी जलते अंगारों-सी,
काँपा विश्व, जगा नवयुग, हृत-पीड़ित जन-जन के जीवन में !

अब तक केवल बाल बिखेरे कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसू भरकर काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर-स्पर्शित पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम निकली हो बनकर अभिशापिन!

बलिदानों की आहुति से तुम भीषण हड़कम्प मचा दोगी,
संघर्ष तुम्हारा न रुकेगा त्रिभुवन को आज हिला दोगी,
देना होगा मूल्य तुम्हारा पिछले जीवन का ऋण भारी,
वरना यह महल नये युग का मिट्टी में आज मिला दोगी !

समता का, आज़ादी का नव-इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम तो आग लगाने को आयीं,
है साथी जग का नव-यौवन, बदलो सब प्राचीन व्यवस्था,
वर्ग-भेद के बंधन सारे तुम आज मिटाने को आयीं !
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** DR. MAHENDRA BHATNAGAR
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